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स्वदेश–

सदा के सूनसान स्थान में हजारों वर्षों से एकान्तवास कर रहा है, एका-एक आश्रयहीन हो जायगा!

यहाँ के लोगों ने बहुत दिनों से अपने हाथों गृह-निर्माण नहीं किया; वह अभ्यास इनको नहीं है और इनमें के बहुतेरे अधिक विचारशील लोगों को यही एक बड़ा गर्व है। वे लोग जो इस बातको लेकर पुच्छलेखनी फटकारते हैं सो बिलकुल ठीक है––उसका प्रतिवाद किसी से नहीं हो सकता। सचमुच ही इन लोगों को अपने अत्यन्त प्राचीन आदि-पुरुषों की बस्ती कभी छोड़नी नहीं पड़ी। समय के फेर से यद्यपि अनेक ऊँची नीची अवस्थाओं का सामना करना पड़ा है, अनेक नये सुभीते और अड़चनें आकर उपस्थित हुई हैं; किन्तु इन्होंने सबको खींच-खाँचकर, मृत और जीवित को, सुभीतों और अड़चनों को, जी जा नसे एकत्र कर अपने बाप-दादाओं की बनाई हुई उसी एक ही दीवार में चुन रक्खा है। इस प्रकार की बात कभी, इनके शत्रुपक्ष के लोगों के मुँहसे भी नहीं सुनी जाती कि उन्होंने कभी अड़चन में पड़कर भी, अपने सुभीत के लिए, औरों से लागडाँट करके अपने हाथसे कोई नया घर बनाया या पुराने घरकी मरम्मत, अर्थात् संस्कार किया है। घर की छत में जहाँ छिद्र दिखाई पड़ा है वहाँ आपसे आप उगे हुए बरगद के पेड़की शाखाने कभी छाया कर दी है और कभी धीरे धीरे जमी हुई मिट्टी की तहने उस छिद्र को थोड़ा बहुत बंद कर दिया है, लेकिन इन्होंने कभी उधर ध्यान नहीं दिया।

इस वनलक्ष्मी से शून्य घने वन में, इस पुर-लक्ष्मी से सूनी टूटी-फूटी पुरी में हम धोती पहन कर चादर ओढ़कर बहुत ही धीरे धीरे टहलते हैं, भोजन के बाद जरा सो लेते हैं, छाँह में बैठकर गंजीफा––चौसर खेलते हैं। जो कुछ असंभव और संसारी काम काज के बाहर