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स्वदेश–

सौन्दर्यपूर्ण होकर संध्या के अन्धकार में डूब जाता है वैसी ही मधुर समाप्ती क्या तुम पा सकोगे? या, जैसे 'कल' एकाएक बिगड़ कर बंद हो जाती है, जैसे लगातार बढ़ती हुई आग और गरमी जमा होने से एकाएक एंजिन फट जाता है, जैसे एक ही लाईन पर आमने-सामने से आती हुई दो रेलगाड़ियाँ आपसकी टक्कर से अचानक चूर चूर हो जाती हैं उसी तरह प्रबल वेग में एक दारुण अपघातसे तुम्हारी समाप्ति होगी?

"जो कुछ हो, तुम लोग इस समय एक अपरिचित समुद्र में उसके अप्रकट किनारे की खोज में चले हो। इस लिए यही अच्छा होगा कि तुम अपनी राह जाओ और हम अपने घर में रहें।"

किन्तु भाई भारत-वासियो, मनुष्य मनुष्य को इस तरह रहने कब देता है? तुम जिस समय विश्राम करना चाहते हो उस समय पृथ्वी के और लोग तो थके हुए नहीं हैं। गृहस्थ जिस समय नींद के मारे बेचैन हैं उस समय आवारा लोग तरह तरह के उपद्रव करते हुए राह राह मारे मारे फिरते हैं।

इसके सिवा यह भी स्मरण रखना चाहिए कि तुम पृथ्वी में जहाँ आकर ठहरोगे वहीं से तुम्हारा ध्वंस होना आरम्भ हो जायगा। क्यों कि तुम्ही अकेले ठहरोगे, और कोई नहीं ठहरेगा। यदि तुम जगत्प्रचाव के साथ समान गति से नहीं चल सकते तो सारे प्रवाह का दौड़ता हुआ वेग तुम पर आकर पड़ेगा; उसके धक्के से तुम या तो टूटभट-कर उलट-पलट जाओगे, और या धीरे धीरे क्षय को प्राप्त होकर कालस्रोत की तलहटी में डूब जाओगे! इस कारण या तो लगातार चलो और जीवन की चर्चा करो, और नहीं तो विश्राम करो और मिट जाओ। पृथ्वी परका ऐसा ही नियम है।