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पृष्ठ:स्वदेश.pdf/२६

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अतएव यह ठीक है कि हम जो संसार में संहार के सामने आकर उपस्थित हुए हैं, इसके बारे में किसी के कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु जब हम इसके सम्बन्ध में विलाप करते हैं तब यों करते हैं कि––"ऊपर जिस प्राकृतिक नियम का वर्णन किया गया है वह साधारणतः संसार में चलता है सही, किन्तु हम लोगों ने उसी में कुछ ऐसा सुभीता कर लिया था कि बहुत दिनोंतक वह नियम हम पर लागू नहीं हुआ। जैसे, साधारणतः यह कहा जाता है कि वृद्ध होना और मरना जगत् का नियम है; किन्तु हमारे योगी लोगों ने अपनी जीवनी शक्ति (श्वासा) को रोककर मुर्दे की तरह होकर जीवित रहने का एक उपाय ढूँढ़ निकाला था। समाधि की अवस्था में जैसे उनकी वृद्धि नहीं होती थी वैसे ही क्षय भी नहीं होता था। जीवन की गति को रोकने से ही मृत्यु आती है, किन्तु जीवन की गति को रोककर ही वे लोग चिरजीवन पाते थे

"हमारी जाति के सम्बन्ध में भी साधारणतः यही बात कही जा सकती है। अन्य जातियों जिस कारण से मरती हैं, हमारी जातिने उसी कारण को उपाय बनाकर बहुत दिनोंतक जीते रहने का मार्ग ढूँढ़ निकाला था। आकांक्षा का वेग जब कम हो जाता है, थका हुआ उद्यम जब ढीला पड़ जाता है तब कोई जाति नाशको प्राप्त होती है। किन्तु हम लोगों ने बड़े यत्न से दुराकांक्षा या तृष्णा को कम करके और उद्यमको जड़सा बनाकर समान भावसे आयु-रक्षा करने की चेष्टा की थी।

"जान पड़ता है, वह चेष्टा कुछ कुछ सफल भी हुई थी। घड़ी- की सुई जहाँ पर आपसे आप ठहर जाती है, वहीं पर समय को भी अपूर्व कौशल-पूर्वक ठहरा दिया गया था। जीवन को पृथ्वीतल से बहुत कुछ