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स्वदेश–

अलग करके एक ऐसे मध्य आकाश में उठा रक्खा गया था जहाँ पृथ्वी की धूल अधिक नहीं पहुँचती थी; वह (जीवन) सदैव निर्लिप्त, निर्मल और निरापद रहता था।

"किन्तु एक दन्तकथा प्रचलित है कि कुछ दिन हुए कलकत्ते में पास के किसी जंगल से एक दीर्घजीवी समाधिस्थ योगी लाया गया था। वहाँ अनेक उपद्रव करके वह समाधि से जगा दिया गया और उससे उसकी मृत्यु हो गई। हमारी जातीय योग-निद्राको भी उसी तरह बाहर के लोगों ने बहुत उपद्रव करके तोड़ दिया है। अब दूसरी जातियों में और हममें कुछ अन्तर नहीं है, यदि कुछ है तो यही कि बहुत दिनों तक बाहरी विषयों में उद्योग न करने के कारण हमको जीवन की चेष्टा का अभ्यास नहीं रहा है। हम योगाध्याय से निकलकर एकदम गड़बड़ाध्याय में आ पड़े हैं।"

ऐसी अवस्थामें अब कर्तव्य क्या है? इस समय पहले के उस वि- लक्षण नियमसे काम नहीं चलनेका। अब तो जो साधारण नियम है उन्हींके अनुसार प्रचलित प्रथाओं से आत्मरक्षा की चेष्टा करनी होगी। लंबी जटा और नख कटवाकर, नियमित स्नान आहार करके कुछ कपड़े-लत्ते पहनकर हाथ-पैर चलाना होगा।

किन्तु इस समय मामला ऐसा ही आपड़ा है कि यद्यपि हमने जटा और नख कटवा डाले हैं और संसार में प्रवेश करके समाजके लोगों के साथ मिलनाजुलना भी शुरू कर दिया है, किन्तु मन के भावको अर्थात् स्वभाव को हम अभीतक नहीं बदल सके। अब भी हम कहते हैं कि हमारे पूर्व-पुरुषों ने केवल हड़ें खाकर या नंगे बदन रहकर महत्त्व प्राप्त किया था। फिर हम सँवार-सिंगार, आहार-विहार और रहनसहन का इतना आदर क्यों करें? यों कहकर हम लोग आधी धोती