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स्वदेश–

केवल एन्ट्रेन्स तक पढ़कर आज पाँच वर्ष से सेक्रेटरियट के दफ्तर में अप्रैटिसी (उम्मेदवारी) कर रहा है। वह भी यदि लँगोट पहनकर मिट्टी मलकर उठते-बैठते ताल ठोके और भले आदमियों के द्वारा उसका कारण पूछे जाने पर कहे कि मेरा बाप पहलवानी की है, इसी से मैं भी ऐसा करता हूँ; तो यह देख-सुनकर ग़ैरोंको जो चाहे दिल्लगी सूझे, मगर उसके स्वजनों और हित-मित्रों को उसके लिए विशेष चिन्ता हुए बिना न रहेगी। इसलिए या तो सचमुच तपस्या करो और नहीं तो तपस्या का आडम्बर छोड़ो।

पूर्वसमय में ब्राह्मणों का एक खास सम्प्रदाय था। उन पर एक विशेष कार्य का भार था। उन्होंने इसलिए कि वे उस कार्य में विशेष उपयोगी बने रहें, अपने चारों ओर कुछ आचरण––अनुष्ठानों की एक सीमा-रेखा खींच रक्खी थी। वे लोग अत्यन्त सावधानता के साथ अपने चित्तको उस सीमाके भीतर ही रखते थे, बाहर नहीं जाने देते थे। प्रायः सभी कामों की ऐसी ही एक उपयोगी सीमा हुआ करती है, जो दूसरे काम के लिए बाधा-स्वरूप होती है। हलवाई की दूकान में यदि वकील अपना व्यवसाय चलाना चाहे तो हजारों तरह की रुकावटें और विघ्न उपस्थित हुए बिना न रहेगे। ऐसे ही जहाँ पहले किसी वकील का आफिस रहा हो वहाँ यदि किसी विशेष कारण-वश हलवाई-की दूकान खोलना पड़े तो उस समय क्या कुरसी-टेबल, कागज-पत्र और अलमारियों में तहकी तह सजी हुई कानूनी रिपोटो का मोह करने से काम चल सकता है कभी नहीं।

इस समय ब्राह्मणों में वह पहले की विशेषता नहीं रही। वे केवल पढ़ने-पढ़ाने और धर्म-चर्चा करने में ही नहीं लगे हुए हैं। उनमें से अधिकांश ब्राह्मण नौकरी करते हैं। तपस्या करते तो हम किसीको भी नहीं