पड़ जाय। इस तरह की पोशा की पवित्रता लेकर संसार में रहना सच-मुच ही एक भारी विपत्ति है। जनसमाज की युद्धभूमि, कर्मभूमि और रङ्गभूमि में ऐसी सँवारी हुई पवित्रता को सँभालकर चलना अत्यन्त कठिन समझकर, जिनकी शुचि-वायु का रोग है वे अभागे जीव अपने चलने-फिरने और रहने की जगह अत्यत संकीर्ण (तंग) बना लेते हैं और अपने को कपड़े-लत्तों की तरह सदा सन्दूक में बन्द रखते हैं उनके द्वारा मनुष्य का परिपूर्ण विकास या उन्नति कभी नहीं हो सकती।
आत्मा की आन्तरिक पवित्रता के प्रभाव से बाहरी मलिनता के प्रति थोड़ी-बहुत उपेक्षा किये बिना काम ही नहीं चल सकता। जो मनुष्य सौन्दर्य का बड़ा भारी भक्त है वह अपना रंग बिगड़ने के डरसे पृथ्वी की धूल-मिट्टी और हवा-धूप-पानी से सदा बच कर चलने की चेष्टा करता है और मोम के पुतले की तरह निरापद स्थान में बैठा रहता है। वह भूल जाता है कि रंग की सुकुमारता या सोफियानापन सौन्दर्य की एक बाहरी सामग्री है, उसकी भीतरी प्रतिष्ठा-भूमि स्वास्थ्य ही है––अर्थात् स्वास्थ्य ही सौन्दर्य की नींव है। जड़ पदार्थ के लिए स्वास्थ्य की जरूरत नहीं है, इसीसे यदि जड़को ढक रक्खें-बंद कर रक्खें तो कोई हानि नहीं। अतएव यदि हम आत्मा को जड़ या मृत पदार्थ नहीं समझते तो थोड़ी बहुत मलिनता का खटका होने पर भी उसके स्वास्थ्य के खयाल से, उसे सबल बनाने के उद्देश्य से उसका साधारण जगत् से सम्बन्ध स्थापित करना बहुत जरूरी है।
अब यहाँ मालूम हो जायगा कि ऊपर आध्यात्मिक बाबुआना शब्द का प्रयोग क्यों किया गया था। जैसे बेहद बाहरी सुखों के सेवन की आदत को ही विलासिता, बाबुआना या शौकीनी कहते हैं वैसे ही अत्यन्त बाह्य-पवित्रता-प्रियता को आध्यात्मि