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स्वदेश–

स्वाभाविक नियम के अनुसार समाज जितनी ही उन्नति करता है उतनी ही उसकी जिम्मेदारी और कर्तव्य की उलझन बढ़ती जाती है। यदि हम कहें कि हम इतना नहीं कर सकते, हममें इतना उ द्यम नहीं है, शक्ति नहीं है; यदि हमारे माता-पिता कहें कि हम बेटे बेटियों को उपयुक्त अवस्था तक मनुष्यत्व की शिक्षा देने में तो असमर्थ हैं, किन्तु मनुष्य के लिए जितना शीघ्र सम्भव है (यहाँ तक कि असम्भव भी कहा जा सकता है), हम माता-पिता बनने को तैयार हैं; यदि हमारे विद्यार्थी लोग कहें कि संयम हमसे नहीं हो सकता, शरीर और मनकी सम्पूर्णता प्राप्त करने की राह देखने में हम बिलकुल असमर्थ हैं, असमय में अपवित्र स्त्रीपुरुष-सम्बन्ध हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्यों कि हिन्दूधर्म का यही विधान है––हम न उन्नति चाहते हैं, न झंझट चाहते हैं, हमारा इसी प्रकार बड़े मजे में काम चला जायगा; तो चुप रहने के सिवा इसका कुछ उत्तर ही नहीं है। परन्तु यह बात फिर भी कहनी ही पड़ती है कि हीनता को हीनता समझना भी अच्छा है किन्तु बुद्धि के बल से निर्जीवता या जड़ता को साधुता और असमर्थता को सर्वश्रेष्ठता साबित करना अच्छा नहीं। ऐसा करना सद्गति की राह में चारों ओरसे एकदम काँटे रूँध देने के बराबर हैं।

असल बात यह है कि यदि सर्वांगपूर्ण मनुष्यत्व के ऊपर हमको श्रद्धा और विश्वास रहे तो इतनी बात ही न उठे। तब तो अपने को कुछ कूट-कौशल-पूर्ण व्याख्याओंमें भुलाकर थोड़े से बाहरी संकीर्ण संस्कारों के घेरे में बंद हो रहनेकी प्रवृत्ति ही न हो।

जिस समय हमारी जाति वास्तव में एक जाति थी, उस समय हम भी युद्ध और बनिज-व्यापार करते थे; हमारा शिल्पकौशल उत्तम और