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नया और पुराना।

प्रसिद्ध था; हम देश-देशान्तरों में आते जाते और अन्य जातियों से अनेक विद्यायें सीखते और उनको सिखाते थे; हमारे पास दिग्विजय करनेवाला बल और विचित्र ऐश्वर्य था। आज इसको बहुत वर्ष बीत गये; इस समय और उस समय के बीच में अनेक उलट फेरों का अन्तर आ पड़ा है। आज हम समय के सीमान्त-प्रदेश में स्थित उसी भारतीय सभ्यता को, पृथ्वी से बहुत दूर पर स्थित एक तपस्या से पवित्र और होम-धूम-रचित अलौकिक समाधि-राज्य की तरह देख पाते हैं; और उसका मिलान अपने इस वर्तमान ठंडी छाँहवाले, कर्महीन, निद्रालस, निस्तब्ध गाँव के साथ करते हैं। किन्तु इस मिलान में यथार्थता कुछ भी नहीं है।

हमारी यह कल्पना निरी कल्पना ही है कि हमारे यहाँ केवल आ- ध्यात्मिक सभ्यता थी; उपवास करने से दुर्बल हुए हमारे सारे पूर्वपुरुष अलग अलग अकेले बैठकर अपने अपने जीवात्मा को हाथ में लिये उसे सान पर चढ़ाया करते थे––उसको कर्म से बिलकुल अलग रखकर अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति की रेखा बना डालने की चेष्टा में लगे रहते थे।

हमारी उस सर्वाङ्गसम्पन्न प्राचीन सभ्यता को मरे बहुत दिन हो गये। हमारा वर्तमान समाज उसकी प्रेतयोनि मात्र है। अपने क्षीण अङ्गोंको देखकर हम अनुमान करते हैं कि हमारी पुरानी सभ्यता के भी इसी प्रकार शरीर का लेश भी न था; वह केवल एक छायामय आध्यात्मिकता थी। उसमें पृथ्वी-जल-अग्निका नाम भी न था; था केवल थोड़ा सा वायु और आकाश।

केवल महाभारत को पढ़ने से ही इस बात का पता लग जाता है कि हमारी उस समय की सभ्यता में जीवन का वेग कितना प्रबल था।