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स्वदेश–

उसमें कितने ही समाजविप्लव और कितनी ही परस्परविरोधी शक्तियों की टक्करें देख पड़ती हैं। वह समाज किसी एक बड़े बुद्धिमान् कारीगर आदमी के हाथ का गढ़ा हुआ अत्यन्त सुन्दर सुसज्जित समतायुक्त 'कल' का समाज न था। उस समाज में एक तरफ लोभ, हिंसा, भय, द्वेष और असंयत अहङ्कार ने और दूसरी तरफ विनय, वीरता, आत्मत्याग, उदार महत्व और अपूर्व साधु-भाव ने मनुष्यचरित्र में हलचल डालकर उसे सजग सचेत बना रक्खा था। उस समाज में सभी पुरुष साधु न थे, सभी स्त्रियाँ सती न थीं और सभी ब्राह्मण तपस्वी न थे। उस समाज में विश्वामित्र ऐसे क्षत्रिय थे; द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और परशुराम ऐसे ब्राह्मण थे; कुन्ती ऐसी सती थीं; क्षमाशील युधिष्ठिर ऐसे राजा थे; शत्रुओं के रक्त की प्यासी तेजस्विनी द्रौपदी ऐसी रमणी थीं। उस समय के समाज में भलाई और बुराई, प्रकाश और अन्धकार आदि जीवन के लक्षण वर्तमान थे। उस समय का मनुष्यसमाज रेखा-चिह्नित, विभाग-युक्त, संयत और सिलसिलेवारनाशी के समान नहीं था। विप्लव के द्वारा क्षोभ को प्राप्त हुई विचित्र मनुष्य प्रवृत्तियों के घात-प्रतिघात के कारण, सदा जागते रहने की शक्ति से-परिपूर्ण उसी समाज में हमारी वह प्राचीन सभ्यता छाती फुलाये विशाल शाल वृक्ष की तरह सिर ऊँचा किये विराजमान थी।

उसी प्रबल वेगवाली सभ्यता को आज हम अपनी कल्पना से निपट निश्चेष्ट निर्विरोध निर्विकार निरापद और निर्जीव बताकर कहते हैं कि हम लोग वही सभ्यजाति हैं, हम लोग वही आध्यात्मिक आर्य हैं। हम लोग केवल जप तप करेंगे; दलबन्दी करेंगे और समुद्रयात्राको रोककर, दूसरी जातियों को अछूत बताकर, उस महान् हिन्दू-नाम को सार्थक करेंगे।