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नया और पुराना।

किन्तु इसके बदले यदि हम सत्य को प्यार करें, विश्वास के अनुसार काम करें, घर के लड़कों को ढेर के ढेर झूठ में डालकर गोल गोल गले की फाँसी न बनावें––बरन् उन्हें सत्य की शिक्षा से सरल, सबल और दृढ़ बनाकर सिर ऊँचा करके खड़ा कर सकें; यदि अपने हृदय में ऐसी अभिमानरहित उदारता की चर्चा कर सकें कि हम चारों ओर से शान और महत्त्व को नियम-पूर्वक सानन्द, सादर, संभाषण करके ला सकते हैं; यदि हम संगीत, शिल्प, साहित्य, इतिहास, विज्ञान आदि विविध विद्याओं की आलोचना और चर्चा करके, देश-विदेश में घूमकर, सारी पृथ्वी को रत्ती रत्ती छान––कर जाँच परतालकर और मन लगाकर निष्पक्ष भाव से विचार कर, अपने को चारों ओर से खोलकर विकसित कर ऊपर उठा सकें, तो, यह तो नहीं कहा जा सकता कि जिसे मैं 'हिन्दूपना' कहता हूँ वह पूरी तौर से टिकेगा कि नहीं, किन्तु यह अवश्य होगा कि प्राचीन काल में जो सजीव सचेष्ट तेजस्वी हिन्दू-सभ्यता थी उससे हमारा बहुत कुछ मेल हो सकेगा।

यहाँ पर मेरे जी में एक उपमा आती है। वर्तमान समय में भारत की प्राचीन सभ्यता खान के भीतर के पत्थर के कोयले के समान है। किसी समय जब उसमें घटने-बढ़ने और लेने-देने का नियम था तब वह बड़े भारी जंगल के रूप में जीवित थी। उस समय उस में वसन्त और वर्षा का सजीव समागम होता था, उसमें फल फूल और नव पल-बों का स्वाभाविक विकास था। इस समय उसमें वृद्धि या गति न होने पर भी वह हमारे लिए अनावश्यक नहीं हो गई है। उसके भीतर अनेक युगों की गरमी और प्रकाश छुपा हुआ है। किन्तु हमारे निकट वह अन्धकार मय और ठण्डी है। हम उससे केवल घोर काले अहंकार स्तम्भ बनाकर खेल करते हैं। इसका कारण यही है कि