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भारतवर्ष का इतिहास।

सहज में टूटने लायक नहीं। इसी से जब उस सम्बन्ध का बहु-वर्ष-व्यापी ऐतिहासिक सूत्र, हमको पढ़ने के लिये समय नहीं मिलता तब हमारा हृदय निरवलम्ब हो जाता है, और, डूबते हुए मनुष्य की तरह, जिस वस्तु को सामने पाता है उसी को पकड़ने दौड़ता है। हम लोग भारतवर्ष के घास फूस नहीं हैं; सैकड़ों शताब्दियों से, हमारी जड़की हजारों शाखायें भारतवर्ष के मर्मस्थान पर अधिकार जमाये बैठी हैं। किन्तु हमारे, अभाग्यसे, हमें जो इतिहास पढ़ना पड़ता है वह ठीक इससे उलटा सबक देता है। हमारे लड़के भारत के साथ अपने ऐसे सम्बन्ध की बात जानने ही नहीं पाते। उन्हें जान पड़ता है कि भारत के वे कोई हैं ही नहीं; अन्य देशों से आये हुए ही सब कुछ हैं।

जब अपने देश के साथ हम अपने सम्बन्ध को ऐसा हीन समझ लेते हैं तब देश पर ममता या अनुराग कहाँ से हो? इस दशा में स्वदेश के स्थान पर विदेश को स्थापित करने में हमको कुछ भी सङ्कोच नहीं होता। भारतवर्ष की बेइज्जती देखकर हमको मर्मवेदना और लज्जाका अनुभव ही नहीं हो सकता। हमारे अँगरेज़ी पढ़े लिखे नौजवान अनायास कह उठते हैं कि हमारे देशमें पहले था ही क्या? हमको तो खानपान, चालढाल, रहनसहन, सब कुछ विदेशियों से सीखना ही होता।

भाग्यशाली देशों के निवासी लोग देश के इतिहास में ही अपने चिरकालीन देश को पाते हैं––बाल्यावस्था में इतिहास ही उनके देश के साथ उनका धनिष्ट परिचय करा देता है। किन्तु, हमारे यहाँ ठीक इससे उलटा है। देश के इतिहास ने ही हमारे देश को छिपा रक्खा है। महमूद के आक्रमण से लेकर लार्ड कर्जन के साम्राज्य-गर्व से भरे हुए उद्गार निकलने तक जो कुछ भारत का इतिहास लिखा गया है वह हमारे लिए