पृष्ठ:स्वदेश.pdf/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३२
स्वदेश–

विचित्र-अन्धकारमय कुहा सा है। वह, अपने देश को देखने में हमारी दृष्टिकी सहायता नहीं करता; बल्कि स्वभावतः जो कुछ हम देख सकते हैं उसमें भी रुकावट डालता है। वह ऐसी जगह पर अपना बनावटी प्रकाश डालता है जहाँ से हमारा देश हमें अन्धकारमय जान पड़ता है। उस अन्धकार में, मैजिक लालटेन के तमाशे की तरह, नबाबों की बिलास-शाला के झाड़ फानूसों का प्रकाश प्रकट होता है; और उस प्रकाश में नबाबों की बेगमों और रखैल रण्डियों के जवाहरात-जड़े जेवर जगमगा उठते हैं; बादशाहों के शराब के प्याले, जागने से लाल हुए साक्षात् उन्मत्तता के लाल नेत्रों की तरह, दिखलाई देते हैं। उस अन्धकार में हमारे सारे प्राचीन देव-मन्दिर सिर झुका लेते हैं और बादशाहों की प्रणयिनियों के श्वेत-संगमरमर-विरचित, वैभव-पूर्ण, समाधि-मन्दिरों की चोटियाँ आकाश चूमने के लिए उद्यत हो उठती हैं। उस अन्धकार में घोड़ों के टापों की ध्वनि, हाथियों की चिंग्धार, हथियारों की झनझनाहट, दूरतक फैली हुई छावनियों में लहराने वाला सैना का कोलाहल, कमखाब के बिछौनों की सुनहली छटा, मसजिदों की फेननिम कलसियों और पहरेदारों से सुरक्षित महलों के अन्तःपुर में रहस्य निकेतन या रङ्गभवन का सन्नाटा––ये सब बातें विचित्र शब्द, वर्ण और भाव के द्वारा जिस बड़े भारी इन्द्रजाल की रचना करती हैं उसे भारतवर्ष का इतिहास कहने से क्या लाभ? इस इन्द्रजालमय उपन्यास ने भारतवर्ष की पुण्य-मन्त्रमय पुस्तक को विचित्र अलिफलैलाकी कहानियोंसे लपेट रक्खा है। इस समय उस पुण्य-मन्त्रमय पुस्तक को कोई नहीं खोलता शिक्षार्थी बालक उसी अलिफलैला के किस्से को कण्ठस्थ कर लेते हैं।

इसके बाद प्रलय-रात्रि में, जब मुगल-साम्राज्य रण-शय्या पर पड़ा सिसक रहा था, श्मशान-भूमिमें दूरसे आये हुए गिद्धों में पर-