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भारतवर्ष का इतिहास।

हमारे देश के सुशिक्षित कहलानेवाले उपाधिधारी लोग भी नासमझों की तरह, दूसरों के स्वर में स्वर मिलाकर, बारबार कह उठते हैं कि देश तुम किसे कहते हो? हमारे देश में यह 'स्वदेश' की विशेषता का थी, और इस समय भी कहाँ है?

इस प्रकार के प्रश्नोंका उत्तर देना सहज नहीं। इसका कारण यही है कि यह बात इतनी सूक्ष्म और इतनी बड़ी है कि केवल युक्ति और अल्प तर्क से समझी या समझाई नहीं जा सकती। चाहे अँगरेज हों और चाहे फरासीसी, किसी भी देश के आदमी इन प्रश्नों का उत्तर दो-चार बातों में नहीं दे सकते। वे नहीं बता सकते कि उनका देशी भाव क्या है, और उनके देश का मूल मर्मस्थान कहाँ है? ये बातें देह-स्थित प्राण की तरह प्रत्यक्ष सत्य हैं; तथापि प्राण की तरह संज्ञा और धारणा से परे हैं। यह देशी भाव, एक प्रश्न के उत्तर में दो चार बातें सुन लेने से समझ में नहीं आ सकता। भारत में लेक्चर सुनकर ही कोई देशी भाव को नहीं ग्रहण करता था। वह तो बचपन ही से हमारे ज्ञान के भीतर हमारे प्रेम के भीतर, हमारी कल्पना के भीतर अनेक अलक्ष्य मार्गों से अनेक आकार धारण करके प्रवेश करता था। इस देशी भाव का नियम ही यह है कि वह इसी तरह ज्ञान, प्रेम और कल्पना में प्रवेश करके अपनी विचित्र जादू-भरी शक्ति से, चुपचाप छिपे-छिपे हृदयका संगठन करता है––अतीत के साथ वर्तमान का विच्छेद नहीं होने देता। इसी की कृपा से हम अब भी बड़े हैं-हम अब भी मरे नहीं जीवित हैं। इस विचित्र उद्यममयी गुप्त पुरातन शक्ति को हम संशयपूर्ण जिज्ञासु के आगे किसी संज्ञा के द्वारा, या दो-चार बातों से, किस तरह जाहिर कर सकते हैं?

भारतवर्ष की प्रधान सार्थकता या देशीभाव क्या है?––इस प्रश्न का जो स्पष्ट उत्तर हो सकता है उसका समर्थन भारतवर्ष का सच्चा इति-