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स्वदेश–

हास ही करेगा। भारत की सदा से यही चेष्टा देखी जाती है कि वह अनेकता में एकता स्थापित करना चाहता है; वह अनेक मार्गो को एक ही लक्ष्य की ओर अभिमुख करना चाहता है; वह बहुत के बीच किसी एक को निस्संशय–रूप से––अन्तरतर–रूप से––उपलब्ध करना चाहता है। उसका सिद्धान्त या उद्देश्य यह है कि बाहर जो विभिन्नता देख पड़ती है उसे नष्ट न करके, उसके भीतर जो निगूढ़ संयोग देख पड़ता है उसे प्राप्त करना चाहिए।

एक को प्रत्यक्ष करने या ऐक्य-विस्तार करने की यह चेष्टा भारत के लिए अत्यन्त स्वाभाविक और अन्य लोगों की अपेक्षा सहज भी है। भारत से इसी स्वभाव ने उसे सदा से, राष्ट्रगौरव की ओर से उदासीन बना रक्खा है। राष्ट्र-गौरव की जड़ है विरोध का भाव। जो लोग गैर को गैर ही नहीं समझ सकते, अथवा यों कहिए कि गैर के प्रति सहानुभूति-शून्य ही नहीं हो सकते, वे राष्ट्रगौरव की प्राप्ति को अपने जीवन का चरम लक्ष्य कभी नहीं मान सकते। दूसरे के विरुद्ध अपने को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा ही राजनैतिक उन्नति की नीव है। इसी तरह दूसरे के साथ अपने सम्बन्ध-बन्धन तथा अपने भीतर के विचित्र विभागों और विरोधों में सामञ्जस्य स्थापन की चेष्टा ही धर्मनीतिसम्बन्धिनी और समाज-सम्बधिनी उन्नति की नीव है। लोग यूरप के ऐक्यकी प्रशंसा करते हैं; पर वे नहीं जानते कि यूरप की सभ्यता ने जिस एकेको पसन्द किया है वह विरोध-मूलक है, और भारत वर्ष की सभ्यता ने जिस एकेको पसन्द किया है वह मिलन-मूलक है। यूरप के राजनैतिक एकेके भीतर विरोध की फाँस मौजूद है। वह फाँस यूरप को दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर सकती है, किन्तु उसके भीतर सामञ्जस्य नहीं स्थापित कर सकती। बोट-भिखारिणी रमणियों के उपद्रव और आयरलैंड को मिलनेवाले स्वराज्य के विरुद्ध होनेवाली घटनाओं पर