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स्वदेश–

मगर,भारत ने विसदृश को भी सम्बन्ध के बन्धन में बाँधने की-अपने में संयुक्त करने की––चेष्टा की है। सभी एक हो जायँ, ऐसा एक कानून जारी कर देने से सब एक नहीं हो सकते। जो एक होने वाले नहीं, उनमें सम्बन्ध स्थापित करने का एकमात्र उपाय यही है कि उनको उनके भिन्नभिन्न अधिकारों में अलग अलग स्थापित कर दिया जाय। जो अलग ही है उसे बलपूर्वक एक बनाने से कभी न कभी वह अवश्य ही विच्छिन्न हो जाता है। उस विच्छेद के समय बड़ा अनर्थ––घोर अनिष्ट––हो जाया करता है। हमारा भारत, मिलाने अर्थात् एक करने के इस नियम या रहस्य को अच्छी तरह जानता था। फरासीसी विद्रोह ने बाहुबल से रक्तपात के द्वारा मनुष्यों के सारे अलगाव या विसदृशता को दूर कर देने की चेष्टा की थी; पर फल उलटा ही हुआ। यूरोप में राजशक्ति और प्रजाशक्ति, धनशक्ति और जनशक्ति, क्रमशः प्रबलरूप से एक दूसरे के विरुद्ध होती जारही है। भारत का लक्ष्य था, सबको एक सूत्र में बाँधना। इसका उपाय भी उसने निराला ही निकाला था। भारत ने समाज की परस्पर प्रतियोगिनी या विरोधिनी सारी शक्तियों को सीमाबद्ध और विभक्त करके समाजकलेवर को अखण्ड, अत-एव सर्वशक्तिमान्, बना दिया था। उसने अपने अधिकार का क्रमशः उल्लंघन करने की चेष्टा करके विरोध-विशृंखला उपस्थित करने का अवसर ही नहीं दिया। उसने परस्पर की प्रतियोगिता (चढ़ाऊपरी) के मार्ग में ही समाज की सारी शक्तियों को एकत्र करके और उन्हें लड़ाभिड़ाकर धर्म, कर्म गृहस्थाश्राम को आवर्तित, आन्दोलित, कलुषित और उद्भान्त बना देने की स्वतन्त्रता कभी किसी को नहीं दी। ऐक्य-निर्णय, मिलन-साधन और शान्ति तथा स्थिति के भीतर ही परिपूर्ण परिणति (उन्नति) और मुक्ति का अवकाश प्राप्त करना ही भारतवर्ष का लक्ष्य था।