पृष्ठ:स्वदेश.pdf/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३९
भारतवर्ष का इतिहास।

विधाता भारत वर्ष में विविध प्रकार की विभिन्न और विचित्र जातियों को खींच लाया है। इससे कोई हानि नहीं। भारतवर्ष की आर्य जाति ने गैर को भी अपना बना लेने की शक्ति पाई है। उस शक्ति की चर्चा और प्रयोग करने का अवसर भी उसे प्राचीन काल से ही प्राप्त है। ऐक्य-मूलक सभ्यता को मनुष्य जाति की चरम सभ्यता कहना चाहिए। उसकी नीव, विचित्र उपकरणों द्वारा, चिर काल से, भारतवर्ष ही डालता आया है। गैर कहकर उसने किसी को अपने से दूर नहीं किया; अनार्य कहकर उसने किसी को अपने घर से बाहर नहीं निकाला; असंगत कहकर उसने किसी की हँसी नहीं उड़ाई। भारत ने सबको ग्रहण कर लिया––सब कुछ स्वीकार कर लिया। इतना ग्रहण करके भी भारतवर्ष यह नहीं भूला कि आत्मरक्षा के लिए, इस समूह के भीतर, हर एकको अपना अधिकार, अपनी व्यवस्था, अपनी शृंखला स्थापित करने की आवश्यकता है। लडाई के मैदान में पशु जैसे छोड़ दिये जाते हैं उसी तरह इन सबको, एकको दूसरे के ऊपर, छोड़ देने से काम नहीं चल सकता। उसने अच्छी तरह समझ लिया कि इनको नियम-निर्माण द्वारा अलग अलग रखकर एक ही मूल-भाव में बाँध रखना––मिला रखना––आवश्यक है। सामग्री चाहे जहाँ की हो, यह शृंखला––यह व्यवस्था भारतवर्ष की ही है।

यूरप, गैर को दूर करके––उत्सन्न करके––अपने समाज को निरापद रखना चाहता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और केप-कलोनी में आज तक हम इसी का परिचय पा रहे हैं। यूरप की इस लालसा का कारण भी है। कारण यही है कि उसके निज के समाज में एक सुविहित शृंखला का भाव नहीं है। वह अपने ही भिन्न भिन्न सम्प्रदायों को समाज में यथोचित स्थान नहीं दे सकता। उसके समाज के जो अङ्ग हैं उनमें से