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स्वदेश–

अनेक ऐसे हैं जो समाज के लिए भार हो रहे हैं। ऐसी अवस्था में वह बाहर के लोगों को अपने समाज में किस जगह स्थान दे सकता है? जहाँ घर के ही लोग हिस्से-बाँट के लिए उपद्रव मचा रहे हैं वहाँ बाहर के आदमी को कहाँ जगह मिल सकती है? जिस समाज में शृंखला है, ऐक्यका विधान है, सबके लिए अलग अलग स्थान और अधिकार है, वही समाज सहज में दूसरे को अपना बना सकता है। या तो दूसरे को मार काट कर, भगाकर, अपने समाज और सभ्यता की रक्षा की जा सकती है, और या दूसरे को अपने नियमों से संयत बनाकर सुविहित शृंखला में उसके लिए स्थान देकर। यूरोप ने इनमें से पहली प्रणाली पसंद करके सारे संसार के साथ विरोध का द्वार खोल रक्खा है। परन्तु भारतवर्ष ने दूसरा ढँग पसंद करके क्रमशः धीरे धीरे सबको अपना कर लेने की चेष्टा की है। यदि शान्ति-धर्म पर श्रद्धा हो, यदि धर्म ही मानुषी सभ्यता का चरम आदर्श माना जाय, तो भारत ही का ढँग श्रेष्ठ और अच्छा कहा जा सकता है।

पराये को अपना कर लेने में प्रतिभा की जरूरत हुआ करती है। विख्यात कवि शेक्सपियर ने कहाँ से क्या लिया, इसका अनुसन्धान करने बैठिए तो अनेक भाण्डारों में उसके प्रवेश का अधिकार आविकृत हो सकता है। फिर उसकी इतनी प्रशंसा क्यों है प्रशंसा का कारण यह है कि उसमें पराये को अपना बना लेने की शक्ति थी। इस शक्ति से ही वह इतना ले भी सका। अन्यके भीतर प्रवेश करने की शक्ति और अन्य को सम्पूर्ण रूप से अपना बना लेने की करामात ही प्रतिभा का सर्वस्व-प्रतिभा की खूबी है। भारतवर्ष में हम वही प्रतिभा विद्यमान पाते हैं। भारत ने बिना संकोच के अन्य के भीतर प्रवेश किया है और अनायास ही अन्य की सामग्री को अपने ढँग पर अपना लिया