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स्वदेश–


इस आश्रम में, निर्जन प्रकृति के बीच चुपचाप एकाग्र होकर बैठने से हृदय में इस बातका स्पष्ट अनुभव होता है कि 'होना' ही जगत् का चरम या परम आदर्श है; 'करना' नहीं। प्रकृति में कर्म की सीमा नहीं है, किन्तु प्रकृति को देखो, वह उस कर्म को आड़ में रखकर अपने को 'होने' के रूप में प्रगट करती है। मैं जब प्रकृति के मुख पर दृष्टि डालता हूँ तभी देखता हूँ कि उसमें क्लेश और थकावट का कोई चिह्न नहीं है; वह जैसे किसी का निमन्त्रण पाकर उससे मिलने के लिए सजधजकर सुविस्तृत नील आकाश में आराम से बैठी हुई है। इस संसार भरकी गृहिणी की पाकशाला कहाँ है? धान कूटने का घर कहाँ है? और किस भंडारे के घर में इसके विचित्र आकार के बरतन पाँति की पाँति सजाये हुए रक्खे हैं? फूल-फल-पत्तियाँ इसके गहने जान पड़ते हैं, इसका कार्य ही इसकी लीला जान पड़ता है, इसकी गति देखकर नृत्य का भ्रम होता है और इसकी चेष्टा उदासीनता के समान जान पड़ती है। प्रकृति ने घूमते हुए चक्रों को नीचे छिपाकर और स्थिति को ही गति के ऊपर रखकर सदा से अपने को प्रकाशमान रक्खा है। उसने अविराम कर्म के वेग में अपने को अस्पष्ट नहीं बनाया, और न संचित हुए कर्मो के ढेर में अपने को ढक ही दिया है।

इस कर्म के चारों ओर अवकाश का होना, इस (कर्म की) चंच लता को (अवकाश की) ध्रुव-शान्ति के द्वारा मण्डित कर रखना ही प्रकृति की नित्य नवीनता का रहस्य है। यह केवल नवीनता ही नहीं, बरन् यही उसका बल है।

भारतवर्ष ने उस प्रकृति के प्रातःकालीन अरुणवर्ण आकाश से, सूखे और धूसर मैदानों से, चमकती हुई किरणों की जटाओं से मण्डित विराट् मध्याह से, और उसकी कसौटी सरीखी अँधियारी