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नया वर्ष।

सन्नाटे की रात से यह उदार शान्ति, यह विशाल निस्तब्धता अपने हृदय के भीतर प्राप्त की है। भारतवर्ष कर्म का किंकर नहीं है।

सब जातियों का स्वाभाविक आदर्श एक नहीं है। इसके लिए, मेरी समझ में, क्षोभ होना या पछताना बेकार और बेमतलब है। भारत वर्ष ने मनुष्य का उल्लंघन करके कर्म को बड़ा नहीं बनाया। फल कामना-रहित कर्म की महिमा बखानकर उसने वास्तव में कर्म को संयत ही कर लिया है। फल की कामना उड़ा देना मानों कर्मरूपी नाग के जहरीले दाँत उखाड़ डालना है। इस उपाय से मनुष्य कर्म के ऊपर भी अपने को सजग-सचेत करने का अवकाश पाता है; अर्थात् कर्म के नशे में अपनी स्थिति को भूल नहीं जाता––सोच समझकर चलता है। इसी से कहते हैं कि हमारे देश का चरम लक्ष्य 'होना' ही है; 'करना' तो केवल उपलक्ष्य मात्र है।

विदेशों के साथ सम्बन्ध होने से भारतवर्ष की यह प्राचीन निस्तब्धता हिल उठी है; अर्थात् निस्तब्ध एकाग्र भारतवर्ष चञ्चल हो उठा है। मेरी समझ में इससे हमारा बल नहीं बढ़ता; उलटे हमारी शक्ति क्षीण होती जा रही है। इससे दिन-दिन हमारी निष्ठा, अर्थात विश्वास विचलित हो रहा है; हमारे चरित्र का संगठन नहीं होता, वह टूटता बिखरता जाता है; हमारा चित्त चंचल और हमारी चेष्टायें व्यर्थ हो रही हैं। पहले भारतवर्ष की कार्यप्रणाली (काम करने का ढँग) अत्यन्त सहज-सरल, अत्यन्त शान्त, तथापि अत्यन्त दृढ़ थी। उसमें किसी प्रकार का आडम्बर या दिखावा न था। उसमें शक्ति का अनावश्यक अपव्यय नहीं होता था। सती स्त्री अनायास ही पति की चिता पर चढ़ जाती थी, सेना का सिपाही चने चबाकर समय पर उत्साह के साथ युद्धभूमि में जाता और लड़ता था। उस समय आचार की रक्षा के