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स्वदेश–

लिए सब प्रकार की अड़चनें उठाना, समाज की रक्षा के लिए भारी से भारी दुःख भोगना और धर्म की रक्षा के लिए प्राण तक दे देना बहुत ही सहज था। निस्तब्धता या एकाग्रता की यह अद्भुत शक्ति इस समय भी भारत में संचित है; हम लोग आप ही उसको नहीं जानते। हम इने-गिने शिक्षा चंचल नवयुवक इस समय भी दरिद्रता के कठिन बल को, मौन के स्थिर जोश को, निष्ठा की कठोर शान्ति को और वैराग्य अर्थात् आनासक्ति की उदार गम्भीरता को अपनी शौकीनी, अविश्वास, अनाचार और अन्ध अनुकरण के द्वारा इस भारतवर्ष से दूर नहीं कर सके हैं। इस मृत्यु के भय से रहित आत्मगत शक्ति ने संयम, विश्वास और ध्यान के द्वारा भारत वर्ष को उसके मुख की कान्ति सुकुमारता, अस्थिमज्जा में कठिनता, लोकव्यवहार में कोमलता और स्वधर्म की रक्षा में दृढता दी है। इस शान्तिमयी विशाल शक्ति का अनुभव करना होगा––एकाग्रता के आधार भूत इस भारी कठिनता को जानना होगा। भारत के भीतर छिपी हुई यह स्थिर शक्ति ही अनेक शताब्दियों से, अनेक दुर्गतियों में, हम लोगों की रक्षा करती आती है। याद रक्खो, समय पड़ने पर यह दीन हीन वेश वाली, आभूषणहीन, वाक्यहीन, निष्ठापूर्ण शक्ति ही जागकर सारे भारतवर्ष के ऊपर अपनी अभयदायक मंगलमय बाँह की छाँह करेंगी। अँगरेजी कोट, अँगरेजों की दूकानों का सामान, अँगरेज मास्टरों की गिटपिट बोली पकी पूरी पूरी नकल––यह कुछ उस समय नहीं रहेगा; किसी काम नहीं आवेगा। हम आज जिसका इतना अनादर करते हैं कि आँख उठाकर भी नहीं देखते; जिसे इस समय हम जान ही नहीं पाते; अँगरेजी स्कूलों के झरोखों में से जिसकी सँवार सिंगार से रहित झलक देख पड़ते ही हम त्यौरी बदलकर मुँह फेर लेते हैं; वही सनानन महान् भारतवर्ष है। वह हमारे