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स्वदेश–

आज नवीनवर्ष में इस शून्य मैदान के बीच हम लोग भारतवर्ष का और एक भाव अपने हृदय में ग्रहण करेंगे। वह भाव और कुछ नहीं, भारतवर्ष का एकाकित्व अर्थात् अकेलापन है। यह अकेलेपन का अधिकार बहुत बड़ा अधिकार है। इसे पैदा करना होता है। इसको पाना और उससे अधिक इस की रक्षा करना कठिन है। हमारे बाप-दादे यह अकेलापन भारतवर्ष को दे गये हैं। यह महा भारत और रामायण की तरह हमारी जातीय सम्पत्ति है।

सभी देशों में देखा जाता है कि जब कोई अपरिचित विदेशी यात्री अपूर्व पहनावे के साथ आकर उपस्थित होता है तब वहाँ के लोगों को ऐसा कौतूहल होता है कि वे पागल से हो उठते हैं––उसे घेर कर प्रश्न पर प्रश्न कर, खोद बिनोद कर, सन्देह कर हैरान कर डालते हैं। किन्तु भारत का यह नियम नहीं है। भारतवासी ऐसे अपरिचित अजनवी की ओर अत्यन्त सहज भाव से देखता है––न उसको धक्का मारता है और न उसके धक्के खाता है। चीना यात्री फाहियान और हुएनसांग जैसे आसानी के साथ, आत्मीय स्वजन की तरह, भारत, भर में भ्रमण कर गये हैं वैसे वे यूरोप की यात्रा कभी न कर पाते। धर्म का एका बाहर नहीं दिखाई देता। जहाँ भाषा, आकार पहनावा ओढ़ावा, सभी भिन्न हैं, वहाँ कौतूहल के निठुर आक्रमण से पग-पग पर बचकर चलना सर्वथा असाध्य है। किन्तु भारतवर्ष की बात ही और है। वह अकेला और अपने में मग्न है। वह अपने चारों ओर एक प्रकार की चिरस्थायी निर्जनता धारण किये हुए है। यही कारण है कि कोई एकदम उसके शरीर पर आकर नहीं गिर पड़ता। अपरिचित विदेशी लोगों को उसके पास से निकल जाने के लिए काफी जगह मिल जाती है। जो लोग सदा भीड़ लगाकर, दल बाँध कर,