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रास्ता रोक कर बैठे रहते हैं उन लोगों को बिना धक्का दिये और बिना उनके धक्के खाये नये आदमी का उधर से निकल जाना सं भव ही नहीं। नया आदमी जब ऐसी मण्डली में पड़ जाता है तब उसे सब प्रश्नों का उत्तर देकर––सब परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर तब कहीं एक कदम आगे बढ़ने का अवकाश मिलता है। किन्तु भारतवर्ष का आदमी जहाँ रहता हैं वहाँ वह बाधा की रचना नहीं करता––वह स्थान के लिए खींचतान नहीं करता। उसके अकेलेपन के अवकाश को कोई छीन नहीं सकता। चाहे ग्रीक हो, चाहे अरबी हो और चाहे चीना––वह किसी को, जंगल की तरह, नहीं रोकता। वह एक बड़े वृक्ष की तरह, अपने नीचे चारों ओर, रुका वट से रहित स्थान छोड़ देता है। यदि कोई उसके पास आकर आश्रय ग्रहण करता है तो उसे छाया देता है, और, अगर कोई पास आकर चला जाता है तो उससे कुछ कहता नहीं।
इस अकेलेपन का महत्त्व जिसके चित्त को अपनी ओर नहीं खींच ता वह भारतवर्ष को ठीक तौर से पहचान ही नहीं सकता। कई शताब्दियों से, प्रबल विदेशी लोग उन्मत्त बराह की तरह अपने दाँतों से भारतवर्ष को, एक सिरे से दूसरे सिरे तक, खोदते फिरते रहे; उस समय भी भारतवर्ष अपने बहुव्यापक अकेलेपन से ही सुरक्षित था––कोई भी उसके मर्मस्थान पर चोट नहीं पहुँचा सका। हमारा भारतवर्ष युद्ध और विरोध न करके भी अपने को अपने में अनायास ही स्वतन्त्र कर रखना जानता है। इसके लिए अबतक हथियारबन्द पहरेदार की जरूरत नहीं हुई। जैसे कर्ण स्वाभाविक कवचसहित पैदा हुए थे वैसे ही भारतवर्ष की प्रकृति भी एक स्वाभाविक बेठन से लिपटी हुई है। सब प्रकार के विरोध और विप्लव में भी, एक प्रकार को न तोड़ी जा सकने वाली शान्ति उसके साथ साथ अटल रूप से