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स्वदेश

रहती है। इसी से वह टूट फूट कर गिर नहीं पड़ता, किसी में मिल नहीं जाता, कोई उसको लील नहीं सकता। वह जोश से जाती हुई भारी भीड़ में भी अकेला विराजमान है।

यूरोप के लोग भोग तो अकेले, परन्तु काम दल बाँध कर करते हैं। भारतवर्ष में ठीक इसका उलटा होता है। भारतवर्ष भोग तो करता है बाँट कर, पर काम करता है अकेला। यूरोप की धनसम्पत्ति और सुख-आराम व्यक्तिगत है; किन्तु उसका दान-ध्यान, स्कूल-कालेज की स्थापना, धर्म-चर्चा, बनिज-बेपार सब दल बाँध कर होता है। पर हमारे यहाँ अपने सुख, अपनी सम्पत्ति को कोई अकेले नहीं भोगता-हमारे यहाँ दान-ध्यान, पढ़ना-पढ़ाना और कर्तव्य-पालन ही अकेले किया जाता है।

हमारे यहाँ के इस भाव को चेष्टा करके नष्ट करने की प्रतिज्ञा करना व्यर्थ है। ऐसी चेष्टा करने से भी कुछ विशेष फल नहीं हुआ; और न आगे ही होगा। यहाँ तक कि मैं तो बनिज-बेपार में भी एक जगह बड़ी भारी धूनी जमा करके उसके द्वारा छोटी छोटी शक्तियों को बल-पूर्वक निष्फल कर डालने को अच्छा नहीं समझता। भारतवर्ष के जुलाहे जो रोजगार से खाली हो रहे हैं, इसका कारण उनका एकत्र होने की चेष्टा न करना नहीं है। उनका अपने औजारों की उन्नति न करना ही इसका कारण है। अगर करघा अच्छा हो,और हर एक जुलाहा अगर काम करे, कमाकर खाय, सन्तोष के साथ जिन्दगी बिताये, तो समाज में यथार्थ दरिद्रता और ईर्षा का विष जमने ही न पावे और मंचेस्टर अपने भारी कल-कारखानों से भी इनके मुँह की रोटी न छीन सके।कल-पुरजों को बहुत ही सीधे सादे और