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नया वर्ष।

सहज बनाकर काम को सब के करने लायक बना देना––पेटभर अन्न को सबके लिए सुलभ कर देना ही पूर्वीय आदर्श है। यह बात हमें याद रखनी चाहिए।

चाहे मनोरञ्जन हो, चाहे शिक्षा हो और चाहे कोई हितकारी काम हो, सभी को एकदम पेचीला और कष्टसाध्य बना डालने से लाचार होकर सम्प्रदाय या दल के हाथ में पड़ना होता है। इससे यह होता है कि काम की तैयारी और जोश लगातार इतना बढ़ता जाता है कि मनुष्य उसी से ढक जाता है––घिर जाता है। चढ़ा ऊपरी के निठुर धक्के से काम करनेवाले मजदूरों की हालत मेशीन से भी बुरी हो जाती है। हम ऊपर से सभ्यता का बड़ा आयोजन––भारी धूमधाम––देख कर आश्चर्य में आ जाते हैं। उसके नीचे जो दारुण नरमेध यज्ञ दिनरात किया जा रहा है वह छिपा ही रहता है। उसे हम नहीं देख पाते। परन्तु विधाता से वह नरबलि नहीं छिप सकती। बीच बीच में, सामाजिक भूकम्प से उसके परिणाम की खबर मिला करती है। यूरोप में बड़ा दल छोटे दल को पीस डालता है, बड़ा रुपया छोटे रुपये-को उपवास से क्षीण करके अन्त को गोली की तरह निगल जाता है।

काम के उद्योग को बेहद बढ़ा कर, काम को भारी बना कर, काम को काम से भिड़ा देने में उससे जो अशान्ति और असन्तोष का विष उबल पड़ता है उसकी आलोचना मैं इस समय नहीं करना चाहता। मैं इस समय यही सोच रहा हूँ कि इन काले धुएँ की साँस लेनेवाले दानब सरीखे कारखानों के भीतर, बाहर और चारों ओर जिस तरह मनुष्यों को घूमघाम कर––हिर फिर कर–– रहना होता है उससे उनका एकान्त में रहने का सहज अधिकार नहीं रहता; अकेलेपन की प्रतिष्ठा नहीं रहती। न रहता है स्थान का अवकाश, न रहता