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स्वदेश–

बाहर से उस मर्यादा को नहीं देख पाते। जिस आदमी ने जिस काम के करनेवाले माता-पिता के यहाँ जन्म लिया है, जो काम जिसके लिए सहज और सुलभ है, उसी काम के करने में उसका गौरव है। उस काम को न करने ही में उसकी मर्यादा न रहेगी। यह मर्यादा ही मनुष्यत्व को बनाये रखने का एक मात्र उपाय है। अवस्था की विषमता (अर्थात् सबकी एक सी अवस्था न होना) सदा पृथ्वी पर रहेगी ही; उसे कोई नहीं मिटा सकता। ऊँची अवस्था बहुत ही कम लोगों को नसीब होती है। शेष सब लोग अगर उन थोड़े से हैसियतदार या अमीर लोगों के भाग्य से अपने भाग्य का मिलान करके उससे अपनी बेइज्जती समझें तो वे अपने को दीन समझने के कारण वास्तव में छोटे हो जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि विलायत के मजदूर प्राणपण से काम करते हैं; किन्तु उस कार्य से उनको मर्यादा नहीं मिलती। वे अपने को हीन समझने के कारण सचमुच ही हीन हो जाते हैं। इस प्रकार यूरोप के पन्द्रह आने आदमी दीनता और ईर्षा में पड़कर व्यर्थ की चेष्टा में डावाँडोल हो रहे हैं। यही कारण है कि यूरोपियन यात्री यहाँ आकर अपने यहाँ के गरीबों और नीचे दर्जे के लोगों के हिसाब से यहाँके गरीबों और नीचे दर्जे के लोगों की अवस्था पर विचार करता है। वह सोचता है कि यूरोपके गरीबों और नीचे दर्जे के लोगों को जैसा दुःख और अपमान भोगना पड़ता है वैसा ही दुःख और अपमान यहाँ के गरीब और नीचे दर्जे के लोग भी भोगते हैं। किन्तु यहाँ यह बात बिल्कुल नहीं है। भारतवर्ष कर्म-भेद, श्रेणी-भेद अच्छी तरह नियमित और निर्दिष्ट है। इस कारण यहाँ के ऊँचे दर्जे के लोग अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए नीचे दर्जे के लोगों को अपमानित करके उनको निकाल बाहर नहीं करते। ब्राह्म-