पृष्ठ:स्वदेश.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५७
नया वर्ष।

फिर उसके नित्य के अपमान और दुःख की सीमा नहीं रहेगी। हमारे देश में, अपने स्थान की नियत सीमा के भीतर, सभी लोग अपने निश्चित अधिकार की इज्जत और शान्ति प्राप्त करते हैं। इसी से हमारे यहाँ छोटा बड़े को और बड़ा छोटे को, मौका पाते ही, निकाल बाहर करने की चेष्टा नहीं करता।

यूरोप कहता है कि यह सन्तोष––यह जीतने की इच्छा का अभाव ही जाति की मृत्यु का कारण होता है। इसके उत्तर में हमारा निवेदन यही है कि वह यूरोपियन सभ्यता की मृत्यु का कारण अवश्य हो सकता है, किन्तु हमारी सभ्यता तो उसी के आधार पर खड़ी हुई है। जो आदमी जहाज पर है उसके लिए जो नियम है वही नियम उसके लिए भी नहीं है जो कि अपने घर में है। यूरोप अगर कहे कि सब सभ्यतायें समान हैं और विचित्रता रहित सभ्यता का आदर्श केवल यूरोप में है तो उसकी यह शेखी की डींग सुनते ही झटपट अपनी धन-रत्न आदि बहुमूल्य सामग्री को टूटे सूप से उठाकर, घर के बाहर सड़क पर, फेंक देना ठीक नहीं।

हम यह मानते हैं कि सन्तोष में दोष है। पर, क्या अत्यन्त आकांक्षा अर्थात् बेहद हबस में दोष नहीं है? अगर यह सच है कि अधिक सन्तोष से जड़ता आकर काम करने की प्रवृत्ति को शिथिल कर देती है तो यह भी न भूल जाना चाहिए कि अत्यन्त आकांक्षा का जोश बढ़ जाने से भी अनेकानेक अनावश्यक और दारुण काम पैदा हो जाते हैं। अत्यन्त सन्तोष में अगर रोग से मृत्यु होती है तो अत्यन्त आकांक्षा में अपघात-मृत्यु होती है। यह बात याद रखने योग्य है कि सन्तोष और आकांक्षा, दोनों की मात्रा बढ़ जाना विनाश का कारण है। अत्यन्त