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पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता।

इस प्रकार एक भाव की हुकूमत से एक देश को एक तरह का तो दूसरे देश को दूसरी तरह का फल मिला है। सारे समाज में इसी भाव की एकता होने के कारण ग्रीस ने ऐसी तेजी से ऐसी अपूर्व उन्नति कर ली कि देखनेवाले दंग रह गये। पृथ्वी की और कोई जाति इतने थोड़े समय में इतना नहीं चमक सकी। किन्तु ग्रीस देश अपनी उन्नति की अन्तिम सीमा तक पहुँचते ही पहुँचते मानों बूढ़ा हो गया। उन्नति के समान उसकी अवनति भी बहुत ही जल्द हो गई। जिस मूल-स्वरूप एक-भाव ने ग्रीक-सभ्यता में जान डाली थी वह मानों जाता रहा––समाप्त हो गया। और किसी नवीन शक्ति ने आकर उसे बल नहीं दिया; न उसका स्थान ही ग्रहण किया।

दूसरी ओर, भारतवर्ष में क्या हुआ? ईजिप्त और भारतवर्ष की सभ्यता का मूलभाव एक होने पर भी भारत में उसका और ही फल हुआ। भारतवर्ष के उस एक मूल-भाव ने समाज को अचल-अटल बना रक्खा। उस मूल-भाव की सरलता से सब कुछ जैसे एक ही ढंग का, सबसे निराला, हो गया। देश का ध्वंस नहीं हुआ, समाज कायम रहा; किन्तु कुछ भी आगे नहीं बढ़ा। सारा का सारा समाज एक जगह पर मानो जकड़ गया।

जितनी प्राचीन सभ्यतायें हैं उनमें किसी एक का एकछत्र राज्य था । वह और किसी को अपने पास आने नहीं देता था। वह अपने चारों ओर मानों एक तरह का 'बेड़ा' बाँध रखता था। यह एकता, यह सरलता का भाव, साहित्य में तथा सब लोगों की बुद्धि और चेष्टा में भी अपना शासन जमाये रहता था। इसी कारण प्राचीन आर्यो के धर्म और चरित्र-सम्बन्धी ग्रंथो में, इतिहास में और काव्यों में, सब जगह एक ही चेहरा–एक ही ढंग–दिखाई पड़ता है। उनका ज्ञान,