पृष्ठ:स्वदेश.pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६४
स्वदेश–

उनकी कल्पना, उनका जिन्दगी बिताने का ढंग और उनके कामकाज मानो एक ही साँचे में ढले हुए हैं। यहाँ तक कि ग्रीस में भी, वहाँ ज्ञान और बुद्धि का बहुत विस्तार हो जाने पर भी, उसके साहित्य और शिल्प में एक प्रकार का अद्भुत एकमुखी भाव देखा जाता है।

किन्तु यूरोप की आधुनिक नई सभ्यता ठीक इससे उलटी है। इस यूरोप की सभ्यता पर एक बार नजर डालो, देखोगे, वह बहुत ही विचित्र, पेचीली और क्षोभ को प्राप्त अर्थात् चञ्चल है। उसके भीतर समाज-तन्त्र के सभी प्रकार के मूल-तत्त्व मौजूद हैं। लौकिक शक्ति भी है और आध्यात्मिक शक्ति भी है। उसमें पुरोहित-शासन, राजशासन, प्रधान-शासन, प्रजाशासन, समाज-पद्धति के सभी सिलसिले––सभी अवस्थायें एक में जुड़ी हुई दिखाई पड़ती हैं। उसमें स्वाधीनता, ऐश्वर्य, और क्षमता (सामर्थ्य के) के सब दोंने क्रम से अपना स्थान ग्रहण कर लिया है। किन्तु ये सब विचित्र शक्तियाँ अपने अपने स्थान पर स्थिर नहीं हैं। ये आपस में बराबर लड़भिड़ रही हैं। तथापि इनमें से कोई भी शक्ति ऐसी प्रबल नहीं है जो और सब शक्तियों को दबा कर आप अकेले सारे समाज पर अपना अधिकार जमा सके। एक ही समय में एक ही जगह, पास ही पास ये सब विरोधी शक्तियाँ अपना अपना काम कर रही हैं। किन्तु इन सब शक्तियों में परस्पर इतनी विभिन्नता रहने पर भी इनके भीतर एक पारिवारिक सदृशता देख पड़ती है। ये सब यूरोपियन कहकर अपना परिचय देती हैं।

यूरोपके चरित्र में, मत में और भाव में भी इसी प्रकार की विचि- त्रता और विरोध है। यूरोप की ये शक्तियाँ नित्यप्रति परस्पर लाँघने की चेष्टा करती हैं, धक्का देती हैं और सीमाबद्ध करती हैं। एक दूसरी का रूप बदल देती हैं और एक दूसरी में घुसती हैं। एक ओर