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पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता।

भाव का गला घोटने लगता है तब उसपर टिकी हुई सभ्यता का नाश निकट आने लगता है।

हरएक जाति का जैसे एक जातिधर्म होता है, वैसे ही, जातिधर्म से भी बड़ा एक श्रेष्ठ धर्म भी होता है। वह श्रेष्ठ-धर्म एक ही जाति का नहीं, सम्पूर्ण मनुष्य मात्र का धर्म है। हमारे देश के वर्णाश्रम धर्म ने जब उस श्रेष्ठ-धर्म को–सर्वसाधारण के धर्म को–हानि पहुँचाई तब उसने भी इस पर चोट चलाई। कहा ही है:––

धर्म एव हतो हन्ति धर्मों रक्षति रक्षितः।

एक समय आर्य-सभ्यता ने ब्राह्मण आदि द्विजों और शूद्रों के बीच एक दुर्लद्धय दीवार खड़ी कर दी थी। किन्तु धीरे धीरे उस दीवार ने वर्णाश्रम धर्म से भी ऊँचे धर्म को सताना या हानि पहुँचाना शुरू किया। वर्णाश्रम धर्म ने अपनी रक्षा करने की चेष्टा की; किन्तु उस श्रेष्ठधर्म की रक्षा पर कुछ ध्यान नहीं दिया। उसने जब शूद्र को ऊँचे दरजे के मनुष्यत्व की चर्चा से एकदम वञ्चित करना चाहा, तब धर्म ने उसका बदला लिया। उस समय ब्राह्मण अपने ज्ञानधर्म को लेकर पहले की तरह आगे नहीं बढ़ सके। अज्ञान से जड़ बने हुए शूद्र सम्प्रदाय ने समाज को खूब जोर से पकड़कर नीचे की ओर खींच लिया। ब्राह्मण ने शूद्र को ऊपर चढ़ने नहीं दिया। फल यह हुआ कि शूद्र ने ब्राह्मण को नीचे घसीट लिया। भारतवर्ष में आज भी, वर्णाश्रम-धर्म में ब्राह्मणों की प्रधानता रहने पर भी, निकृष्ट अधिकारियों की अज्ञता में शूद्र-संस्कारों से ब्राह्मण-समाज तक घिरा हुआ और फँसा हुआ है।

अँगरेजों के यहाँ आने पर जब हरएक के लिए ज्ञान प्राप्त करने का द्वार खुल गया, जब सभी मनुष्य मनुष्यत्व प्राप्त करने के अधिकारी समझे जाने लगे तब ब्राह्मणों के भी सचेत होने के लक्षण दिखाई पड़े