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स्वदेश–

आज ब्राह्मण से शूद्र तक, सब मिलकर, हिन्दूजाति के अन्तर्निहित आदर्श की विशुद्ध मूर्ति को देखने के लिए चेष्टा करने लगे हैं––सब जाग उठे हैं। शूद्र लोग आज जाग रहे हैं, इसी से ब्राह्मण लोग भी जागने की चेष्टा में आँखें खोल रहे हैं।

जो कुछ हो, हमारे वर्णाश्रम-धर्म के संकुचित भाव ने नित्यधर्म को बहुत जगह पर दबा लिया था। इसी कारण वह वर्णाश्रम-धर्म उन्नति की ओर न जाकर बिगड़ने ही की ओर लुढ़क पड़ा।

हमको यह याद रखना चाहिए कि यूरोपियन सभ्यता का मूल आधार राष्ट्रीय स्वार्थ है, वह राष्ट्रीय स्वार्थ यदि इतना अधिक फैले कि वह नित्य-धर्म की सीमा को लाँघने लगे तो उसमें अवश्य विनाश का छिद्र दिखाई देगा और उसी छिद्र से उस पर 'साढ़साती' सनीचर की दृष्टि पड़ेगी।

स्वार्थ का स्वभाव ही विरोध है। यूरोपियन सभ्यता की हरएक सीमा में वह विरोध दिनों दिन बढ़ता ही जाता है। पृथ्वी के लिए एक समय इन यूरोपियन जातियों में परस्पर धक्कमधक्का और छीना-झपटी होने की सूचना अभी से मिल रही है।

यह भी देख पड़ता है कि इस राष्ट्रीय-स्वार्थपरता अर्थात् खुदगर्जी ने नित्य-धर्म को खुलासा तौर पर नीचा दिखाना––न मानना शुरू कर दिया है। "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली नीति का अनुमोदन करने में अब वह नहीं शरमाती या सङ्कोच करती।

यह भी स्पष्ट ही देखा जाता है कि यह बात एक प्रकार से सर्व- सम्मत होती जाती है कि जो उदार धर्म नीति व्यक्तिविशेष के लिए ग्राह्य है वही नीति राष्ट्रीय मामलों में, आवश्यकता के अनुरोध से अग्राह्य है। राष्ट्रतन्त्र में मिथ्या आचरण, प्रतिज्ञाभङ्ग और दगाबाजी भी एक प्रकार की पालिसी समझी जाती है। जो जातियाँ, मनुष्य को मनुष्य के