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पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता।

साथ सत्य व्यवहार करना चाहिए––इस पक्ष का समर्थन करती हैं, न्याय-पर चलना ही श्रेय समझती हैं वे भी राष्ट्रतन्त्र में धर्मज्ञान को उठाकर अलग आले में रख देती हैं। यही कारण है कि फरासीसी, अँगरेज, जर्मन और रूसी––सब, एक दूसरे को कपटी, धूर्त और दगाबाज आदि कहकर जोर जोर से गालियाँ देते हैं।

इससे यही सिद्ध होता है कि यूरोप की सभ्यता ने राष्ट्रीय स्वार्थ को इतनी अधिक प्रधानता दे डाली है कि अब उसने धीरे धीरे बढ़कर ध्रुव-धर्म के ऊपर हाथ साफ करना शुरू किया है। अब पिछली सदी का 'साम्य' और 'भ्रातृभाव' का मन्त्र यूरोप की दृष्टि में 'दिल्लगी की बात' हो गया है। अब ईसाई पादरियों के मुँह से भी 'भाई' शब्द बेसुरा निकलता है।

प्राचीन ग्रीक और रोमन सभ्यता भी इसी राष्ट्रीय स्वार्थ से संगठित हुई थी। इसी कारण, राष्ट्रीय महत्त्व मिटने के साथ ही, ग्रीक और रोमन सभ्यता का भी अंत हो गया। किन्तु हमारी हिन्दू-सभ्यता राष्ट्र-सम्बन्धी एकेपर नहीं प्रतिष्ठित है। यही कारण है कि "हम, चाहे स्वाधीन रहें; चाहे पराधीन; हिन्दू-सभ्यता को अपने समाज के भीतर फिर वैसी ही सजीव मूर्ति में दिखा सकते हैं।" यह आशा, हमारे लिए, दुराशा नहीं है––'बौने की चाँद पकड़ने की अभिलाषा' नहीं है।

नेशन (Nation) शब्द हमारी भाषा में नहीं है। वह हमारे देश की चीज ही नहीं है। आजकल हम लोगों ने, अँगरेजी शिक्षा के फसले, नेशनल (National), नेशनॅलिटी (Nationality) आदि शब्दों का बहुत अधिक आदर करना सीख लिया है। मगर कमी यही है कि उनका आदर्श हमारे देश में हमारे अन्तःकरण में नहीं है। हमारा इतिहास, हमारा धर्म, हमारा समाज, हमारा घर, कोई भी