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स्वदेश–

नेशन गढ़ने की प्रधानता को स्वीकार नहीं करता। यूरोप में स्वाधीनता को जो स्थान मिला है वही स्थान हमारे यहाँ मुक्ति को दिया गया है। हम लोग आत्मा की स्वाधीनता को ही मुख्य मानते हैं। उसके सिवा, अन्य किसी स्वाधीनता को हम नहीं मानते। शत्रु, वह चाहे भीतरी हो या बाहरी, उसके बन्धन में पड़ना ही पराधीनता है। काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का बन्धन काट डालने पर हम लोग बड़े बड़े राजा महाराजाओं से भी श्रेष्ठ पद पा जाते हैं। हमारे यहाँ हरएक गृहस्थ यह सोचता है कि सारे संसार के प्रति कुछ-न-कुछ मेरा कर्तव्य है। वह अपने नित्य के कार्यों से ही जगत् का कार्य करता है। हमने घर के भीतर ही सारे ब्रह्माण्ड और उसके स्वामी की स्थापना कर ली है। हमारे सबसे प्रधान कर्तव्य का उल्लेख या आदर्श इसी एक मन्त्र में कह दिया गया है:––

ब्रह्मनिष्ठो गृहस्थ: स्यात् तत्त्व-ज्ञान-परायणः।
यत् यत् कर्म प्रकुर्वीत तत् ब्रह्मणि समर्पयेत्॥

(अर्थ––तत्त्व अर्थात् सत्य के ज्ञान में लगा रहकर, गृहस्थ और ब्रह्मनिष्ठ होकर, जो कुछ काम करे वह ब्रह्मार्पण कर दे।)

इस आदर्श को ठीक ठीक बनाये रखना नेशनल कर्तव्य से कहीं अधिक कठिन और बड़ा है। इस समय यह आदर्श हमारे समाज में सजीव नहीं है। इसी कारण हम यूरोप की सभ्यता को सतृष्ण दृष्टि से देख रहे हैं। यदि हम अपने इस आदर्श को अपने घरों में सजीव-भाव-से स्थापित कर सकें तो फिर हमको तोप, बन्दूक और गोलागोली की सहायता से बड़े होने की जरूरत न पड़ेगी। तब हम वास्तव में स्वाधीन और स्वतन्त्र होंगे––अपने विजेताओं से किसी बात में घटकर नहीं रहेंगे। हमको याद रखना चाहिए कि दर्ख्वास्त या अर्जी देकर जो कुछ उनसे पावेंगे उससे हमारा कुछ भी बड़प्पन न होगा।