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पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता

पन्द्रह-सोलह शताब्दी कुछ बहुत अधिक समय नहीं है। नेशन ही जिसका विकास है उस पाश्चात्य सभ्यता की पूरी परीक्षा अभी तक नहीं हुई। इसी बीच में देख पड़ता है कि उसके चरित्र या चालचलन का आदर्श श्रेष्ठ नहीं है। वह अन्याय, अविचार और मिथ्या में डूबी हुई है और उसकी नस-नस में एक प्रकार की भयानक निठुराई लहरा रही है।

इस नेशनल आदर्श को ही अपना आदर्श मानने से हम लोगों में भी मिथ्या का प्रभाव बढ़ता जाता है। हमारी राष्ट्रीय सभाओं में अनेक प्रकार के झूठों का प्रादुर्भाव हो रहा है––जालसाजी और अपने को छिपाने की चेष्टा हो रही है। हम सच बात को साफ साफ कह देना भूलते जाते हैं। हम लोग आपस में कानाफूसी करने लगे हैं कि अपने, व्यक्तिगत, स्वार्थ के लिए जो दूषण है वहीं राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए भूषण है।

असल बात यह है कि हरएक सभ्यता का एक-न-एक मूल या आधार अवश्य है। अब विचारना केवल यही है कि वह मूल या आधार धर्म के ऊपर स्थित है या नहीं? यदि वह उदार और व्यापक नहीं है, यदि वह धर्म को हानि पहुँचाता हुआ बढ़ रहा है तो उसकी वर्तमान उन्नति देखकर हमको उस पर लट्टू न हो जाना चाहिए––उसीको एकमात्र अभीष्ट न समझ लेना चाहिए।

हमारी हिन्दू सभ्यता की जड़ समाज है और यूरोपियन सभ्यता की जड़ राष्ट्रनीति है। सामाजिक महत्त्व से भी मनुष्य अपने गौरव को बढ़ा सकता है और राष्ट्रनीतिक महत्त्व से भी। किन्तु यदि हम यह समझें कि यूरोपियन साँचे में 'नेशन' गढ़ लेना ही सभ्यता का स्वभाव और मनुष्यत्व का एकमात्र लक्ष्य है तो वह हमारा भारी भ्रम है।