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स्वदेश–

ख़याल रहता था, झूठी गवाही देना निन्दित समझा जाता था, कर्जदार महाजन को अँगूठा नहीं दिखाता था और साधारण धर्म के सब नियमों पर सब लोगों को सहज सरल विश्वास था।

पूर्वी स्वभाव के अनुकूल यह समाज की व्यवस्था यदि निन्दनीय न समझी जाय तो इसके आदर्श को सदा विशुद्ध बनाये रखने का–– इसका सिलसिला या क्रम ठीक रखने का भार किसी एक खास सम्प्रदाय को अवश्य ही सौंपना पड़ता है। उस सम्प्रदाय के लोगों से यह आशा की जाती है कि वे अपने निर्वाह के ढंग को यथा संभव सरल और विशुद्ध बनाकर––जरूरतों को घटाकर––पढ़ने पढ़ाने और यजन-याजन को ही अपने जीवन का व्रत समझकर––देश के उच्चतम आदर्श को सब तरह की दूकानदारी के दूषित स्पर्श से बचाकर अपने को उस सम्मान का यथार्थ अधिकारी बनावेंगे जो उन्हें समाज से प्राप्त हुआ है।

अपने दोष से ही लोगों को अपना असली अधिकार गँवाना पड़ता है। अँगरेजों के सम्बन्ध में भी यही बात देखी जाती है। देशी आदमी पर अन्याय करके जब कोई अँगरेज प्रेस्टिज की दुहाई पर दण्ड से छुटकारा चाहता है तब वह वास्तव में अपने को सच्चे प्रेस्टिज के अधिकार से वञ्चित करता है। न्यायनिष्ठा का प्रेस्टिज सब प्रकार के प्रेस्टिजों-से बड़ा है। उसके आगे हमारा मन आप ही आप सिर झुकाता है। और, भय का प्रेस्टिज जबरदस्ती गरदन पकड़कर सिर झुकवाता है। इस प्रकार जबरदस्ती सलाम कराने की बेइज्जती के विरुद्ध हमारा मन भीतर ही भीतर विद्रोही बने बिना नहीं रह सकता।

ब्राक्षणों ने भी जब अपने कर्तव्य को छोड़ दिया है तब वे केवल बदन के जोर से, परलोक का भय दिखाकर समाज के सर्वोच्च आसन पर अपने को नहीं रख सकते।