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ब्राह्मण।

कोई सम्मान बेदाम का नहीं होता। मनमाने काम करके सम्मान कायम नहीं रक्खा जा सकता। जो राजा सिंहासन पर बैठता है वह दूकान खोलकर व्यापार नहीं कर सकता। जो सम्मान पाने का अधिकारी है उसे सब ओर से अपनी इच्छा को दबाकर चलना पड़ता है। हमारे देश में घर के और और लोगों की अपेक्षा घर के मालिक और मालकिन को ही सांसारिक सुख-भोग से, अधिक वञ्चित रहना पड़ता है। घर की मालकिन सबके पीछे भोजन करती है। यदि मालिक या मुखिया बनने में कुछ भी स्वार्थ त्याग न हो तो कोरे रोबदाब से ही हुकूमत नहीं चलाई जा सकती––सम्मान नहीं रह सकता। सम्मान भी लोगे और उसका कुछ मूल्य भी न दोगे; यह जबरदस्ती बहुत दिनोंतक कभी नहीं चल सकती।

हमारे समाज के आधुनिक ब्राह्मणों ने बिना दाम दिये सम्मान प्राप्त करने का ढंग पकड़ा था। इसका फल यह हुआ कि समाज में उनका सम्मान दिनों-दिन घटकर अब जबानी जमाखर्च के रूप में रह गया है। इतना ही नहीं, ब्राह्मणलोग समाजके जिस उच्च कर्म पर नियुक्त थे उसमें शिथिलता आजाने से समाज के जोड़ भी खुलते जाते हैं।

यदि पूर्वी भाव से ही हमारे देश में समाज की रक्षा करनी हो––यदि यूरोपियन ढंगसे इस बहुत दिनोंके बड़े समाज को जड़ से बदल देना संभव या मुनासिब न हो––तो यथार्थ ब्राह्मण-सम्प्रदाय की बड़ी जरूरत है। वे गरीब होंगे, पण्डित होंगे, धर्म में निष्ठा रखनेवाले होंगे, सब प्रकार से वर्णाश्रम-धर्म के आदर्श, आधार और गुरु होंगे।

जिस समाज का एक दल धन और मान की पर्वा नहीं रखता, भोग-विलास को धृणा की दृष्टि से देखता है, निःस्वार्थ भाव से ज्ञानका उपार्जन करके निःस्वार्थ भाव से ही औरों को ज्ञान-प्रदान किया करता है, आचार-