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स्वदेश–

विचार में शुद्ध और धर्म-निष्ठा में दृढ़ है,––पराधीनता या गरीबी से उस समाज की कोई बेइज्जती नहीं है। समाज जिन लोगों को सच्चा सम्मान देता है उन्हीं से वह सम्मानित होता है।

सभी समाजों में मान्य व्यक्ति ही––श्रेष्ठ लोग ही अपने अपने समाज के स्वरूप हैं। इँग्लेंड को जब हम धनी कहते हैं तब वहाँ के असंख्य गरीबों की गिनती नहीं करते। यूरोप को जब हम स्वाधीन कहते हैं तब उसके असंख्य साधारण मनुष्यों की पराधीनता पर ध्यान नहीं देते। वहाँ ऊपर के कुछ ही आदमी धनी हैं, उच्च श्रेणी के कुछ आदमी ही स्वाधीन हैं, ऊपर के कुछ आदमी ही पशुपने से बरी हैं। ये ऊपर के कुछ आदमी जबतक नीचे के बहुत से लोगों को सुख स्वास्थ्य और ज्ञान, धर्म देने के लिए अपनी इच्छा का प्रयोग और अपने सुख भोग को संयत बनाये रखते हैं तब तक उस सभ्य समाज को कुछ भय नहीं है।

यूरोपियन समाज इसी तरह चलता है कि नहीं, इसकी आलोचना व्यर्थ मालूम हो सकती है; किन्तु वह बिलकुल व्यर्थ नहीं है।

जहाँ चढ़ा ऊपरी के मारे पास के आदमी को पीछे करके आगे निकल जाने की अत्यन्त प्रबल इच्छा में हर एक को हर घड़ी भिड़ना पड़ता है वहाँ कर्तव्य के आदर्श को विशुद्ध बनाये रखना बहुत ही कठिन है। और, वहाँ किसी एक सीमा पर आकर आशा को सँभालना या रोकना भी मनुष्य के लिए दुःसाध्य हो जाता है।

यूरोप के बड़े बड़े साम्राज्य एक दूसरे से आगे बढ़ जाने के लिए जी जान से चेष्टा कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में यह बात किसी के मुँह से नहीं निकल सकती कि हम पिछड़ कर प्रथम श्रेणी से दूसरी श्रेणी में भले ही आ जायँगे, परन्तु अन्याय नहीं करेंगे। ऐसी बात किसी के