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ब्राह्मण।–

आदमी अपने को यथासंभव कर्म और स्वार्थ से अलग रक्खें। वे ही लोग हमारे यहाँ के ब्राह्मण हैं।

ये ब्राह्मण ही यथार्थ स्वाधीन हैं। ये ही लोग यथार्थ स्वाधीनता के आदर्श को, निष्ठा के साथ, अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए, समाज में बनाये रखते हैं। समाज इनको ऐसा करने का अवसर, सामर्थ्य और सम्मान देता है। इनकी यह मुक्ति ही समाज की मुक्ति है। ये लोग जिस समाज में अपने को मुक्त भाव से रखते हैं उस समाज को क्षुद्र पराधीनता से कुछ भय नहीं है––विपत्ति नहीं है। वह समाज अपने एक अंश––ब्राह्मणों––में सर्वदा अपने मन की, अपने आत्मा की स्वाधीनता का अनुभव कर सकता है। हमारे देश के वर्तमान ब्राह्मण लोग यदि दृढ़ता धारण कर लोभ-शून्य हो उन्नत भाव से समाज के इस श्रेष्ठ धन की रक्षा करते तो आज समाज इस तरह ब्राह्मण का अपमान कभी न होने देता और विचारक के मुख से भी ऐसी बात कभी न निकलती कि भद्र ब्राह्मण को जूता मारना एक साधारण बात है। विदेशी होने पर भी विचारक महाशय सम्मानित ब्राह्मण के मान की मर्यादा स्वयं समझ सकते।

किन्तु जो ब्राह्मण साहब के आफिस में सिर झुकाकर नौकरी करता है, जो ब्राह्मण अपने समय को बेचता है––अपने महान् अधिकार को तिलाञ्जलि दे देता है, जो ब्राह्मण विद्यालय में विद्या का बेपार करता है––विचारालय में विचार का रोजगार करता है, जो ब्राह्मण पैसा कमाने के आगे ब्रह्मतेज को लात मार देता है, वह अपने आदर्श की रक्षा कैसे करेगा? समाज की रक्षा कैसे करेगा? हम श्रद्धापूर्वक उसके निकट धर्म की व्यवस्था लेने कैसे जायेंगे? वह तो सर्वसाधारण के साथ, उन्हीं की तरह, छीनाझपटी और धक्कमधक्के के काम में भिड़ा हुआ पसीने में तर हो रहा है। वह ब्राह्मण तो भक्ति के द्वारा समाज को ऊपर नहीं खींचता––नीचे ही गिराता है।