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स्वदेश–

हम यह मानते हैं कि किसी भी सम्प्रदाय का हर एक आदमी विशुद्ध भाव से अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकता। उनमें से कितनों ही का पैर फिसल जाता है। पुराणों में इस तरह के उदाहरण पाये जाते हैं कि बहुतों ने ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियों और वैश्यों के समान आचरण किये हैं। किन्तु, तथापि, यदि सम्प्रदाय में आदर्श सजीव रहे; धर्म-पालन की चेष्टा या निष्ठा बनी रहे; और यह दूसरी बात है कि कोई आगे बढ़ जाय और कोई पिछड़ रहे, परन्तु सब लोग एक ही पथ पर चलें; और, यदि इस आदर्श का प्रत्यक्ष दृष्टान्त बहुतों में अधिकांश लोगों में-देख पड़े, तो उसी चेष्टा के द्वारा, उसी साधना के द्वारा, और उन्हीं सफलता को पाये हुए व्यक्तियों के द्वारा सारा सम्प्रदाय सार्थक होता है।

हमारे आधुनिक ब्राह्मण-समाज में वह आदर्श ही नहीं है। यही कारण है कि ब्राह्मण के लडके अँगरेजी सीखते ही अँगरेजी ठाट करने लगते हैं और उनके पिता उन पर नाराज नहीं होते। एम. ए. पास किये हुए मिसिर जी और विज्ञान के विद्वान् सुकुल जी ने जो विद्या प्राप्त की है उसे क्या वे विद्यार्थियों को घर में बुलाकर, आसन पर बैठकर नहीं पढ़ा सकते? वे क्यों अपने को और ब्राह्मण समाज को शिक्षा-ऋण से सारे समाज को ऋणी बनानेके गौरव से वञ्चित करते हैं?

प्राचीन काल में, जब केवल ब्राह्मण ही 'द्विज' नहीं कहलाते थे, क्षत्रिय और वैश्य भी द्विज-सम्प्रदाय में शामिल थे, जिस समय ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके उपयुक्त शिक्षा प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय और वैश्य का यज्ञोपवीत होता था, उसी समय इस देश में ब्राह्मण का आदर्श उज्ज्वल था। क्यों कि जिस समय चारों ओर का समाज अवनत होता है उस समय उसके बीच का कोई विशेष सम्प्रदाय अपने को उन्नत नहीं रख सकता धीरे धीरे नीचे का आकर्षण उसे नीचे उतार लेता है।