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ब्राह्मण।


भारतवर्षमें जब एक ब्राह्मण ही द्विज रह गये, जब उनको उनके आदर्शका स्मरण करा देनेके लिए––उनके निकट ब्राह्मणत्व का दावा करनेके लिए––और कोई कहीं नहीं रहा (अर्थात् "तुमको ब्राह्मणत्व बनाये रखना होगा" यह कहनेवाला और कोई नहीं रहा), तब उनके द्विजत्वका विशुद्ध कठिन आदर्श शीघ्रताके साथ भ्रष्ट होने लगा। उस समय ब्राह्मण लोग ज्ञान, विश्वास और रुचिमें क्रमशः निकृष्ट अधिकारियों के दल में आकर दाखिल होगये। जहाँ चारोँ ओर घास के झोपड़े हैं वहाँ अपनी विशेषता बनाये रखने के लिए एक खपरैलका घर बना लेना ही यथेष्ट होता है। वहाँ पर सतमंजिला महल बनानेका खर्च और परिश्रम उठाने की प्रवृत्ति न होना ही स्वाभाविक है।

प्राचीन समयमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, तीनों वर्ण द्विज थे; अर्थात् सारा आर्य-समाज ही द्विज था। शूद्र शब्द से जिनका बोध होता था वे संथाल, भील, कोल और धाँगड़ आदि अनार्य-दलके लोग थे। शिक्षा, रीति-नीति और धर्म आदि बातोंमें आर्यसमाज के साथ उनका मेल होना बिलकुल ही असम्भव था। किन्तु इससे कोई हानि नहीं थी; क्यों कि साराका सारा आर्य-समाज द्विज था––अर्थात् सम्पूर्ण-समाजकी शिक्षा एक ही तरहकी थी। भेद था केवल कर्म में। शिक्षा एक ही रहनेके कारण, आदर्शकी शुद्धता बनाये रखने में एक दूसरेकी अनुकूलता या सहायता करते थे। क्षत्रिय और वैश्य ब्राह्मणको ब्राह्मण होनेमें सहायता करते थे और ब्राह्मण भी क्षत्रिय और वैश्य को क्षत्रिय और वैश्य होनेमें सहायता करते थे। सारे समाजकी शिक्षाका आदर्श एक या समान उन्नत हुए बिना ऐसा कभी नहीं हो सकता।

वर्त्तमान समाजको भी यदि एक 'सिर'की आवश्यकता हो, उस सिरको यदि ऊँचा करनेकी इच्छा हो, और यदि वह समाजका सिर