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स्वदेस–

ब्राह्मण ही माने जायँ, तो, उसके कन्धे और गरदन को जमीन से मिला देने से काम नहीं चलेगा। याद रखना चाहिए कि समाज-शरीर के उन्नत हुए बिना उसका सिर ऊँचा नहीं हो सकता। और, समाज-शरीर को उन्नत कर रखना ही उस सिर का काम है।

हमारे वर्तमान समाज की भद्र जातियाँ हैं वैद्य, कायस्थ, वणिक्-सम्प्रदाय[१]। समाज अगर इनको द्विज न माने तो फिर ब्राह्मणों के ऊपर उठने की कोई आशा नहीं है। समाज बगले की तरह एक टाँग से खड़ा नहीं रह सकता।

वैद्यों ने तो जनेऊ पहन लिया है। बीच बीच में रह रहकर कायस्थ भी कहते हैं कि हम क्षत्रिय हैं। वैसे ही वणिक्-सम्प्रदाय भी वैश्य

होने का दावा करता है। मुझे इस पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं देख पड़ता। सूरत-शकल, बुद्धि और योग्यता––अर्थात् आर्य होने के जो लक्षण हैं उन्हें देखते इनमें और वर्तमान ब्राह्मणों में कोई भेद नहीं है। बंगाल की किसी सभा में जनेऊ देखे बिना ब्राह्मण, कायस्थ और वणिक् सम्प्रदाय को अलग करना सर्वथा असंभव है। परन्तु असली अनार्य अर्थात् भारत की जंगली जातियों में से इन आर्य जातियों को अलग कर देना या पहचान लेना बहुत ही सहज है।


  1. लेखक महाशय यहाँ पर बंगाल ही की बात कर रहे हैं। वहाँ साधारणतः केवल ब्राह्मण और शूद्र दो ही वर्णों का अस्तित्व माना जाता है, और अबतक केवल ब्राह्मण ही यज्ञोपवीत धारण करते थे। बंगाल में वैधनाथ की एक जूदी ही जाति है। प्रतिष्ठा में पहला आसन ब्राह्मण का, दुसरा वैध का, तीसरा कायस्थ का, उसके बाद अन्यान्य जातियों का है। किन्तु कायस्थ भी और प्रान्तों की तरह वहाँ शूद्र ही समझे जाते हैं। वणिक् कहने से खासकर सुनारों का बोध होता है। बंगाल की तरह अन्य प्रान्तों के भी कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहते हैं। अन्यान्य वर्ण वैश्य होने का दावा करते हैं।––अनुवाद।