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ब्राह्मण।

विशुद्ध आर्य-रक्त में अनार्य-रक्त मिल गया है। हम लोगों के रंग से, चेहरे से, धर्म से, आचार से और वर्तमान मानसिक दुर्बलता से यह बात स्पष्ट मालूम होती है। किन्तु यह मिलावट ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, सभी जातियों में हुई है।

जो कुछ हो। शास्त्रोक्त क्रिया-कर्म की रक्षा के लिए, विशेष आवश्यकता होने के कारण ही, समाज को विशेष चेष्टा करके ब्राह्मणों का सम्प्रदाय अलग स्थापित करना पड़ा था। वंगदेशीय हिन्दू-समाज में क्षत्रियों और वैश्यों को, उस तरह विशेष रूपसे, उनके पुराने आचार-विचार की कड़ाई में बाँध रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी। जिसकी खुशी हो युद्ध करे, जिसकी खुशी हो बनिज-बेपार करे, उससे समाज की कुछ विशेष हानि या लाभ नहीं था। इसके सिवा जो लोग युद्ध-वाणिज्य-खेती शिल्प आदि में लगे हुए थे उन्हें खास खास चिह्नों के द्वारा अलग करने की भी कोई जरूरत नहीं थी। लोग अपने प्रयोजन के अनुसार ही व्यवसाय करते हैं। वे उसके लिए किसी विशेष व्यवस्था की अपेक्षा नहीं करते। किन्तु धर्मके सम्बन्ध में यह नियम नहीं है––वह प्राचीन नियमों से बँधा हुआ है। हम अपनी इच्छा के अनुसार उसका प्रबन्ध नहीं कर सकते, उसकी रीतिनीति नहीं बदल सकते।

हमारा सारा समाज प्रधानतः द्विज-समाज है। यदि ऐसा नहीं है अगर हमारा समाज शूद्र-समाज है तो केवल कुछ थोड़े से ब्राह्मणों को लेकर वह यूरोपियन आदर्श से भी गिरेगा और भारतवर्ष के आदर्श से भी भ्रष्ट होगा।

सभी उन्नत समाज समाज के लोगों से प्राण का दावा करते हैं। जो समाज अपने को निकृष्ट मानकर, अपने अधिकांश लोगोंको आराम से जड़ता का सुख भोगने देता है वह समाज मर जाता है। और, यदि वह न भी मरे तो उसका मरना ही अच्छा है।