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स्वदेश–

यूरोप, कर्म की उत्तेजना में––प्रवृत्ति की उत्तेजना में––सदा प्राण देने के लिए तैयार है। हम भी अगर धर्म के लिए प्राण देने को तैयार न हो तो उस प्राण (जन-समूह) का अपमान होनेपर अभिमान प्रकट करना हमें शोभा नहीं देता।

यूरोप का सिपाही युद्धानुराग की उत्तेजना, वेतन के लोभ और गौरव की आशा से प्राण देता है। किन्तु हमारे यहाँ का क्षत्रिय उत्तेजना और वेतन का अभाव होने पर भी युद्ध में प्राण देने के लिए तैयार रहता है। इसका कारण यही है कि युद्ध समाज का एक अत्यन्त आवश्यक कर्म है। एक सम्प्रदाय यदि अपना धर्म समझकर ही उस कठिन कर्तव्य को स्वीकार करे तो कर्म के साथ धर्म की रक्षा होती है। यदि देश भरके सभी लोग युद्ध के लिए कमर कस लें तो मिलिटरिज्म अर्थात् युद्धानुराग की प्रबलता से देश का भारी अनिष्ट हो सकता है।

समाज की रक्षा के लिए बनिज-बेपार अत्यन्त आवश्यक कर्म है। इस सामाजिक आवश्यकता को पूरा करने के काम को यदि एक जाति अपना जातीय कर्म––अपना खानदानी गौरव समझकर स्वीकार करे, तो फिर वाणिज्यानुराग या बनियाईकी वृत्ति सर्वत्र व्याप्त होकर समाज की अन्यान्य शक्तियों को प्रस नहीं लेती। इसके सिवा, कर्म के बीच धर्म का आदर्श सदैव जीता जागता रहता है।

धर्म और ज्ञान का उपार्जन, युद्ध और राजकाज, बनिज और शिल्प की चर्चा––समाज के ये तीन आवश्यक कर्म हैं। इनमें से कोई भी छोड़ा नहीं जा सकता। इनमें से हर एक को, धर्म का गौरव और कुल का गौरव देकर, खास खास सम्प्रदाय के हाथ में सौंपने से वह सीमावर भी हो जाता है और उसकी विशेष उन्नति करने का अवसर भी मिलता है।