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स्वाधीनता।


जितने आक्षेप हो सकते हैं उन सब का ठीक ठीक खण्डन हो गया है। परन्तु जिन आक्षेपों का खण्डन होता है उनका यदि उच्चारण ही न होगा, वे यदि जाहिर ही न किये जायंगे, तो उनका खण्डन होगा कैसे? उनका उत्तर कोई देगा कैसे? अथवा आक्षेप करनेवालों को यदि इस बात के साबित करने को स्वाधीनता न दी जायगी कि जो खण्डन किया गया है, या जो उत्तर दिया गया है, वह योग्य है या नहीं, तो उसकी योग्यता या अयोग्यता ठीक ठीक समझ में आवेगी कैसे? विपक्षियों को चाहिए कि उनके मत पर जो आक्षेप हों उन्हें वे बेरोक टोक के सर्व-साधारण के सामने आने दें। खैर सब के सामने न सही तो जो धर्मशास्त्री और तत्त्ववेत्ता हैं उनके सामने तो वे उन्हें जाहिर होने दें, और ऐसे रूप में जाहिर होने दें जो बहुत ही अधिक व्याकुलता-जनक हो, जो बहुत ही जियादह परेशानी पैदा करनेवाला हो। अर्थात् जो कठिनाई हो-जो आक्षेप हो---उसका रूप जहां तक उग्र और भयङ्कर हो सकता हो तहां तक किया जाय। मतलब यह कि प्रतिकूलता करनेवाले अपने आक्षेपों को यथासम्भव खूब सबल करके दिखलावें जिसमें तत्त्वज्ञानियों और धर्माचार्यों तक से उनका उत्तर न बन पड़े। तत्त्वज्ञ और धर्मज्ञ लोग ही आक्षेपों का खण्डन करेंगे। अतएव आक्षेपों की गुरुता उनको तो अवश्य ही मालूम होनी चाहिए। अब कहिए यदि विपक्षियों के आक्षेप विना किसी प्रतिबंध के प्रकाशित न किये जायंगे और उनके प्रकाशन के लिए सब तरह का सुभीता न होगा तो उनका खण्डन किया किस तरह जायगा? आक्षेपों को सुनोगे, तब तो उत्तर दोगे? रोमन कैथलिक सम्प्रदायवालों ने इस पेचीदा प्रश्न का उत्तर देने की जो युक्ति निकाली है वह विलक्षण है। उन्होंने आदमियों को दो भागों में बांट दिया है। एक के लिए उन्होंने यह नियम बनाया है कि जिन धार्मिक बातों पर उसे विश्वास हो उन्हें वह खुशी से स्वीकार करले; उसके लिए किसी प्रकार की जांच परताल की जरूरत नहीं। पर दूसरे भाग के लिए उनकी आज्ञा यह है कि यदि वह चाहे तो किसी मत को मानने के पहले वह सोच समझ ले और उसका ज्ञान प्राप्त करले। परंतु इन दो में से एक को भी विचार और विवेचना की आजादी नहीं है। आक्षेपों का उत्तर देने के लिए विशेष विश्वसनीय धम्मोपदेशक और धम्माचार्यों को इस बात की अनुमति है कि नास्तिक मत की किताबें वे पढ़े। इससे उनको पाप नहीं होता; उलटा पुण्य