पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/१०२

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दूसरा अध्याय।


होता है। क्यों कि नास्तिक मत के सिद्धान्त समझ कर उन्हें उनका खण्डन करना पड़ता है। यह खण्डन पुण्यकारी है। यही कारण है कि धम्मोपाध्यायों के लिए पाखण्डी पुस्तकें सुलभ कर दी गई है। परन्तु गृहल्यों के लिए यह बात नहीं है। बिना हुक्म के वे ऐसी किताबें नहीं पड़ सकते। उनके लिए इनका पड़ना मना है। जिनकी इच्छा इस तरहकी किताबें पड़ने की होती है उन्हें अनुमति लेनी पड़ती है। अनुमति मिल जाती है; परन्तु मुशकिल से; लो भी सब को नहीं। यह काररवाई, यह नीति, यह मुक्ति इस बात को साबित करती है कि रोमन कैथलिक सम्प्रदाय के अनुयायी अपने विपक्षियों के आक्षेपों को समझ लेना धर्म शास्त्रियों के लिए जरूरी समझते हैं। परन्तु वे अपने मत के अनुसार इस बात का भी कारण-और सयौक्तिक कारण-बतला सकते हैं कि और लोगों को अपने प्रतिपक्षियों के आक्षेपों को सुनने की अनुमति क्यों न देनी चाहिए? अतएव इस सम्प्रदाय के श्रेष्टवर्गवालों के मन को यद्यपि अधिक स्वाधीनता नहीं मिलती तथापि लाधारण आदमियों की अपेक्षा उनकी बुद्धि को अधिक संस्कार प्राप्त होता है; अर्थात् बुद्धि को बढ़ाने का उन्हें अधिक मौका मिलता है। इस तरकीय से इस सम्प्रदाय का बहुत कुछ काम निकल जाता है। अपने मतलब भर के लिए उसे जितनी मानसिक श्रेष्ठता दरकार होती है उतनी उसे मिल जाती है। क्योंकि इस प्रकार के प्रतिबंधयुक्त संस्कार से मन यद्यपि खूब उदार और खूब विशाल नहीं हो जाता तथापि शास्त्रार्थ करने की शक्ति उसमें आ जाती है। अर्थात् किसी पक्ष के, किसी मत के या किसी राय के गुण-दोपों की विवेचना करने के योग्य वह जरूर हो जाता है। पर जहां प्राटेस्टेण्ट धर्म की प्रबलता है वहां यह बात नहीं है। वहाँ यह विलक्षण तरकीय काम में नहीं लाई जाती। क्योंकि इस धर्म के अनुयायियों की समझ-समझ न सही तो कल्पना-ऐसी है कि धार्मिक सिद्धान्तों को स्वीकार या अस्वीकार करने की जिम्मेदारी हर आदमी को अपने ही अपर लेना चाहिए; धर्मा चार्यों और धर्मोपदेशकों पर उसे न छोड़ देना चाहिए। वे कहते हैं कि संसार की वर्तमान अवस्था में यह उचित नहीं कि जिन पुस्तकों को सुशिक्षित आदमी पढ़ें उनके पढ़ने से अशिक्षित आदमी रोक रक्खे जांय। यह बात, इस समय, प्रायः असम्भव है। जितनी बातें जानने के लायक हैं उनका जानना यदि सर्व-साधारण के उपदेशक धर्माचार्यों के लिए जरूरी है तो