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स्वाधीनता।


सब तरह के सुभीते की ओर नजर रखकर धार्मिक और व्यावहारिक नियमों का मेल जोल कर दिया गया है। धर्मशास्त्र को लोग मान्य जरूर समझते हैं; परन्तु उनका प्रेम रूढ़ि पर ही अधिक देख पड़ता है। जितने क्रिश्चियन हैं सब का यह विश्वास है कि जो दीन, धनहीन और नत्र हैं और जिनसे सारी दुनिया बुरी तरह पेश आती है वही सबसे अधिक पुण्यास्मा हैं। सूई के छेद से ऊंट चाहे निकल भी जाय; परन्तु स्वर्ग के फाटक से निकलकर भीतर प्रवेश कर जाना अमीर आदमीके लिए बिलकुल ही असम्भव है। किसी की बुराई न करना चाहिए। कसम न खाना चाहिए। अपने पड़ोसी के सुख दुःख को अपना ही सुख दुःख समझना चाहिए। यदि कोई कोट ले ले तो कमीज भी उसे उतार देना चाहिए। कल की कमी फिकर न करना चाहिए। यदि यह इच्छा हो कि हम पूर्णता को पहुंच जॉय-हमारी स्थिति सर्वोत्तम हो जाय तो जो कुछ पास हो वह दीन दुखिया आदमियोंको दे डालना चाहिए; अर्थात् सर्वस्व दान कर देना चाहिए। जब लोग इस तरह की बातें कहते हैं तब विश्वास पूर्वक कहते हैं; यह नहीं कि ऊपरी मन ले ही कहते हों; या दम्भ करते हों। यदि किसी बात की तारीफ होती है। उसके गुण-दोपों पर विचार नहीं किया जाता-उनकी विवेचना नहीं होती तो लोगोंका विश्वास उस पर जम जाता है। उस पर उनकी श्रद्धा हो जाती है। क्रिश्चियनोंकी भी ठीक यही दशा है। जिन बातोंकी वे तारीफ सुनते आये हैं उनपर उनका विश्वास हो गया है; उनको वे अच्छा समझते हैं। उनका जो विश्वाल धर्मपर है वह इसी तरह का है। उसके सब सिद्धान्तोंके साधक-बाधक प्रमाणोंका उन्होंने विचार नहीं किया; सिर्फ तारीफ सुनकर उन पर विश्वास कर लिया है। परन्तु प्रति दिनके आचरण और व्यवहार में देख पड़नेवाले सजीव, सचेतन या जिन्दा विश्वास का यदि विचार किया जाय तो यह बात साफ साफ मालूम हो जाय कि वैसा विश्वास लोगों में सिर्फ उतना ही है जितना रूढ़ि अर्थात् रीति-रस्म के योग से हो सकता है। अर्थात् धार्मिक विश्वास के अनुसार आचरण रखने की परवा लोग नहीं करते। उसका जितना अंश रूढ़ि में मिलता है उतने ही का वे खयाल रखते हैं और उतने ही के अनुसार वे व्यवहार भी करते हैं। पर जब कभी किसी प्रतिपक्षी को पत्थर मारने की जरूरत होती है तब लोग धार्मिक सिद्धान्तों के समुदाय में से