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दूसरा अध्याय।


एक को भी नहीं छोड़ते। उस समय वे उन सब को सान लेते हैं और प्रतिपक्षी पर उनका प्रयोग करते हैं। अर्थात् ये कागज-रूपी ईंट-पत्थर वे उस पर फेंकते हैं। जिस बात को अच्छी समझकर लोग करते हैं उसको साधार और सप्रमाण साबित करने के लिए कागज के रूप में रहनेवाले इस धर्मशास्त्र ले जो कुछ अपने मतलब का सिलता है उसे वे लोग, मौका आने पर जहां तक लम्भव होता है, सब को दिखलाते भी हैं। परन्तु इन लोगों को यदि कोई इस बात की याद दिलावे कि जो तुम धर्मशास्त्र के अतुलार व्यवहार करना चाहते हो तो एसी सैकड़ों बातें और भी हैं जिनको तुम्हें करना चाहिए; परन्तु जिनका खयाल तुम्हें स्वप्न में भी नहीं होता; तो वे उसे बुरी नजर से देखें और यह कहकर उसकी कुचेष्टा करें कि--"ये आये दुनिया भर ले अधिक अकलमन्द! "मामूली आदमियों पर धर्मशास्त्र की सत्ता नहीं चलती; उनके मत पर उसका कुछ भी असर नहीं होता। अर्थात् उनके आचारविचार धाम्मिक विश्वासों पर अवलम्बित नहीं रहते। शाख की बातों को वे सुन भर लेते हैं। उसके सिद्धान्तों को सुनलेने भर की उन्हें आदत रहती है। पर सुनने के साथ ही धर्मशास्त्र के वाक्यों का अर्थ उनके मन में नहीं उतरता और उनके अनुसार आचरण करने के लिए उन में उत्साह भी नहीं उत्पन्न होता। अर्थात् जो बात शास्त्र में लिखी है उसे वे सुन तो लेते हैं पर उसके अनुसार व्यवहार नहीं करते। जब शास्त्र के अनुसार व्यवहार करने की जरूरत पड़ती है तव वे इस बात को देखते हैं कि लल्लू क्या करता है, जगधर क्या करता है। इस तरह औरों के चालचलन और आचारविचार को देखकर वे इस बात का निश्चय करते हैं कि क्राइस्ट (ईसा मसीह) की आज्ञा को हमें कहां तक मानना चाहिए।

इसमें कोई सन्देह नहीं है इस बात पर मेरा पूरा विश्वास है कि पहले पहल जो लोग क्राइस्ट के अनुयायी हुए वे ऐसे न थे। उनकी स्थिति बिलकुल ही भिन्न थी। यदि ऐसा न होता तो तुच्छ यहूदियों के इस अप्रसिद्ध धर्म का इतना अधिक प्रचार कभी न होता और रोमके इतने बड़े राज्य में वह कभी प्रवेश न पाता। "देखिए, ये क्रिश्चियन एक दूसरे को कितना चाहते हैं"! इस तरह क्रिश्चियन लोगों की तारीफ होनेकी अब बहुत कम सम्भावना है। परन्तु पुराने जमाने में क्रिश्चियनों के शत्रु भी इस तरह उनकी तारीफ करते थे। क्राइस्ट के अनुयायी, जिस समय, इस तरह,

स्वा०-६