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तीसरा अध्याय।


और पूजा-पाठ भी करने लगे। इस कारण यदि सभ्य देशों के अर्द्ध-शिक्षित स्त्री-पुरुष कहीं चले जांय―उनका यकायक लोप होजाय―तो भी, मेरी समझ में इन मानवी यंत्रों को पाने से संसार की बहुत बड़ी हानि होगी। मनुष्य यंत्र नहीं है। आदमी का स्वभाव कल नहीं है कि जिस नमूने का काम करने के लिए वह बनाया गया है उसे ही वह विना सोचे समझे, चुपचाप करता रहे। वह एक प्रकार का पेड़ है। अतएव उसका काम है कि जिन भीतरी शक्तियों ने उसे जानदार बनाया है उनकी प्रवृत्ति, उनकी प्रेरणा, उनके झुकाव के अनुसार वह बढ़े और अपने सब अङ्गों की उन्नति करे।

आदमी इस बात को बहुधा मानते हैं कि अपनी बुद्धि के अनुसार काम करना अच्छा होता है। वे इस बात को भी मानते हैं कि किसी कला या यंत्र की तरह किसी बात को आंख बन्द करके करने की अपेक्षा समझ बूझकर उसे करना और बुद्धिपुरःसर कभी कभी उसका अतिक्रमण तक कर जाना अच्छा होता है। वे इस बात को भी थोड़ा बहुत मान लेते हैं कि अपनी बुद्धि में जो बात अच्छी जँचे उसे वही करना चाहिए। परन्तु इस बात को मानने में वे उतनी सानुरागता या खुशी नहीं जाहिर करते कि अपनी मनोवृत्तियों पर, अपने मन की अभिलापाओं पर, अपने मन के झुकावों या वेगों पर भी अपना ही अधिकार होना चाहिए। उनकी यह समझ है कि मनोविकारों पर अधिकार होना विशेषकरके प्रवल मनोविकारों पर―धोखे का काम है; उनके वशीभूत होकर लोग अकसर आपदाओं में फंस जाते हैं। पर यह खयाल गलत है। जो लोग ऐसा समझते हैं वे भूलते हैं। पूर्णता, अर्थात् कमालियत, को पहुंचे हुए आदमी के लिए जैसे विश्वास और बन्धन की जरूरत है वैसे ही उसके लिए मनोविकार (कामना, अभिलापा,इच्छा आदि) और प्रेरणा की भी जरूरत है। जो प्रेरणायें, जो कामनायें, जो खाहिशें बहुत प्रवल हैं वे यदि काबू के बाहर होजाँय―अर्थात् यदि उनका प्रतिबन्ध न किया जाय यदि उनका नियमन न किया जाय, यदि उनकी बाढ़ न रोक दीजाय―तो आपदाओं में फंसने का डर जरूर रहता है। नहीं तो कोई डरने की बात नहीं। जब एक तरह की प्रेरणायें, वासनायें या खाहिशें प्रबल हो उठीं; और उनके साथ दूसरी तरह की जिन प्रेरणाओं, वासनाओं, या खाहिशों को प्रबल होना चाहिए वे मन्द, ढीली या कमजोर पड़ गई, तभी हानि होती है। अन्यथा नहीं। कामनाओं के