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स्वाधीनता।


प्रवल होजाने से आदमी दुराचार नहीं करते, किन्तु अन्तःकरण के निर्बल होजाने से―मनोदेवता के कमजोर पड़ जाने से―वे वैसा करते हैं। प्रबल वासनाओं और निर्बल अन्तःकरण में कोई सम्बन्ध नहीं है। यह नहीं कि जिनकी वासनायें खूब प्रवल हों―जिसकी खाहिशें खूब जोरावर हों―उसकी विवेकबुद्धि, उसकी समझ, उसकी मनोदेवता भी निर्बल हो। यह कोई नियम नहीं है। नियम ठीक इसका उलटा है। जब हम यह कहते हैं कि एक आदमी की वासनायें और उसके मनोविकार दूसरे आदमी की वासनाओं और उसके मनोविकारों से प्रबल हैं और अधिक भी हैं तब उसका सिर्फ इतना ही मतलब समझना चाहिए कि उसके पास मनुष्यता, आदमियत, या मानवी स्वभाव से सम्बन्ध रखनेवाली कच्ची सामग्री अधिक है। इस कारण यदि वह अधिक बुरे काम कर सकता है तो वह अधिक अच्छे भी काम कर सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं; प्रबल मनोविकार कहते किसे हैं? वह उत्साह का दूसरा नाम है। प्रबल मनोविकार सिर्फ बढ़ा हुआ उत्साह है। जिस आदमी में उत्साह की अधिकता है उसके हाथ से खराब काम हो सकते हैं; पर काम काज से डरनेवाले आलसी आदमी की अपेक्षा उस से अधिक अच्छे काम होने की भी हमेशा उम्मेद रहती है। जिनके मनोविकार स्वाभाविक हैं; अर्थात् जन्म से ही प्रबल हो जाते हैं। जिस ग्राहिकाशक्ति, जिस ज्ञान, जिस समझ के कारण आदमी के मनोविकार खूब तेज, खूब प्रवल, खूब सचेतन हो जाते हैं उसीसे सद्गुणों को प्राप्त करने की प्रवल प्रीति और अपने आपको काबू में रखने―अर्थात् आत्म-संयम करने―की प्रबल इच्छा भी पैदा होती है। इन्हीं शक्तियों को उत्साह देने―इन्हीं शक्तियों को बढ़ाने―से समाज अपना कर्तव्य कर सकता है और अपने हित, स्वार्थ या गौरव की रक्षा भी कर सकता है। सब तरह के प्रसिद्ध पुरुषों, महात्माओं या वीरशिरोमणियों की उत्पत्ति के लिए इन्हींकी जरूरत रहती है। इनके न होने या इनका उपयोग न करने से उत्साही पुरुषों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। जो आदमी अपने मनोवेगों और अपने विकारों का मालिक है―अर्थात् अपने ही शिक्षण या अभ्यास से जिसने उनको बढ़ाया या परिमार्जित किया है―उसीके स्वभाव की लोग प्रशंसा करते हैं। उसीके विषय में लोग कहते हैं कि इसका स्वभाव एक खास तरह का है; इसके आचरण ढंग औरों से बिलकुल जुदा है। जो अपने मनोवेगों का मालिक नहीं है;