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तीसरा अध्याय।

का नाश होजाना ही अच्छा है। यह कालविन का सिद्धान्त है। जो लोग कालविने के अनुयायी हैं वे तो इस सिद्धान्तों को मानते ही हैं। जो लोग उसके अनुयायी नहीं हैं वे भी इसे मानते हैं, पर कुछ कम । वह कमी इस बात में हैं कि वे ईश्वर की मरजी---ईश्वर की इच्छा--का उतना कड़ा अर्थ नहीं करते । वे उसका यह अर्थ करते हैं कि आदमी को इस बात की आज्ञा है कि वह अपनी कुछ विशेष विशेष इच्छाओं को पूरा करे । अर्थात् उसके मन में जो वासनायें पैदा हों उनमें से यदि वह दो चार खास खास वासनाओं को तृप्त करने की चेष्टा करे तो उस पर यह इलजाम नहीं लगाया जायगा कि उसने ईश्वर की आज्ञा भंग की। पर इसके साथ ही वे यह भी समझते हैं कि इस तरह की तप्ति आदमी अपने मन माने तरीके ले नहीं कर सकता; आज्ञापालन के तौर पर ही वह उसे कर सकता है । धर्मशास्त्र में जो नियम हैं उन्हीं नियमों के अनुसार आदमी को अपनी विशेष विशेष कामनाओंको तृप्त करना चाहिए और वे नियम सब के लिए बराबर होने चाहिए । मतलब यह है कि जो नियम एक आदमी के लिए हैं वही सव के लिए होने चाहिए।

आज कल लोग इस खयाल की तरफ वेहद झुके हुए हैं कि आदमी के जीवन का ब्रम संकुचित होना चाहिए; और जिस बड़े सिद्धान्त का वर्णन उपर हुआ उसी तरह के किसी सिद्धान्त के अनुसार आदमी को अपना स्वभाव खूब संकीर्ण और कसा हुआ बनाना चाहिए अर्थात् उसे एक कल्पित सऱ्यांदा या हद के भीतर रखना चाहिए । बहुत लोग तो सचमुच ही यह समझते हैं कि ईश्वर की इच्छा यही है-ईश्वरका संकेत यही है कि बहुत ही क्षुद्र संकुचित और मर्यादाबद्ध अर्थात् महदूद, हालत में रहे। यह ख्याल ऐसा ही है जैसा आज कल लोग पेड़ों को मनमाने तौर पर बढ़ने देने की अपेक्षा छांट कर उनको टुंठ कर देगा या काट कूट कर उनको जान- दरों की शकल का बना देना ही अधिक शोभा और अधिक सुन्दरता का कारण समझते हैं । जिसने आदमी को बनाया है वह न्यायी है; उसके संकल्प-~-उसके खयालात-अच्छे हैं; उनसे अच्छे ही इरादे से आदमी की सष्टि की है । यदि इस तरह की समझ भी धर्म का कोई अंश हो; यदि यह भी धर्मले कोई सम्बन्ध रखती हो; यदि यह भी धर्म को मान्य हो; तो यह स्वीकार करना अधिक शोभा देगा कि स्त्रष्टा ने आदमी को जो मान-