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स्वाधीनता।

आदमी की रुचि जुदा जुदा होती है। इतना ही नहीं, किन्तु आत्मिक उन्नति के लिए हर आदमी को जुदा जुदा स्थिति भी दरकार होती है। जैसे जुदा जुदा तरह के पौधे एक ही प्रकार की जमीन और आबोहवा में नहीं हो सकते वैसे ही सब तरह के आदमियों की उन्नति भी एक ही प्रकार की नैतिक आबोहवा में नहीं हो सकती। उन्नति तो दूर रही उनकी आत्मिक अवस्था ही, इस दशा में, यथास्थित नहीं रह सकती। जो बातें एक आदमी के स्वभाव को उन्नत बनाने में मदद देती हैं वही बातें दूसरे आदमी के स्वभाव को बिगाड़ती हैं। जीवन का जो क्रम एक आदमी के लिए अच्छे उत्साह का बढ़ानेवाला होता है, और जिन शक्तियों की प्रेरणा से वह आदमी काम भी करता है और उससे फायदा भी उठाता है उन्हें जो क्रम खूब अच्छी हालत में रखता है, वही क्रम दूसरे को बोझ मालूम होता है और उसकी आन्तरिक शक्तियों को बेकाम कर देता है, या उन्हें बिलकुल ही पीस डालता है। इस तरह, दुनिया में आदमियों के सुख के साधन, दुःखों के अनुभव करने की शक्तियां और नैतिक नियमों के अनुसार उन पर होनेवाली घटनाओं का असर—ये सब बातें इतनी जुदा जुदा हैं कि यदि इनके अनुरूप आदमियों के जीवन में विचित्रता या भिन्नता न आने दी जाय तो सांसारिक सुख का उचित अंश उन्हें न मिले और न उनकी मानसिक, नैतिक और आन्तरिक वृत्ति की उचित उन्नति ही हो। तो फिर क्यों लोग सिर्फ उन बातों को, सिर्फ उन रुचियों को, सिर्फ उन व्यावहारिक रीतियों को, चुपचाप सहन करते हैं जिनका अनुकरण वे बहुत आदमियों को करते देखते हैं? अर्थात् अनुयायिबाहुल्य के बल पर जो बातें अधिक आदमियों को मान्य हो जाती हैं उन्हींके विषय में सार्वजनिक मत क्यों इतनी सहनशीलता दिखलाता है? धार्मिक लोगों के कुछ मठों को छोड़ कर और कोई भी जगह ऐसी नहीं है जहां लोग रुचि-विचित्रता को बिलकुल ही न मानते हों। जिसका जी चाहे वह तैरे, तम्बाकू पिये, गावे, कसरत करे, शतरंज खेले और किताबें देखे; और जिसका जी न चाहे वह ये काम न करे। यह बात हर आदमी की पसन्द पर छोड़ दी गई है। इसके लिए वह दोषी नहीं ठहराया जाता। अर्थात् जो लोग इन बातों को करते हैं न उन्हींको कोई दोष देता है और जो लोग नहीं करते न उन्हीं को कोई कुछ कहता है। इसका कारण यह